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अवबोध-२३
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खड़ा कर देना, दोनों के फल अथवा उपयोगिता को एक साथ मिला देना अथवा दोनों को एक मान लेना ही दृष्टिभ्रम अथवा समस्या को उत्पन्न करना है।
दोनों की अपनी अलग-अलग उपयोगिता अथवा मूल्यवत्ता है। उन दोनों की उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। एक दान मोक्ष का मार्ग है तो दूसरा सामाजिक अभिवृद्धि का कारण है। अपनी नासमझी के कारण व्यक्ति पारमार्थिक दान में लौकिक दान तथा लौकिक दान में पारमार्थिक दान का मिश्रण कर देता है। पात्र के दान और अपात्र के दान में बहुत बड़ा अन्तर है। इसलिए नीतिकारों ने कहा
'पात्रापात्रविभेदोस्ति, धेनुपन्नगयोरिव।
तृणात् संजायते क्षीरं, क्षीरात् संजायते विषम् ।।' पात्र और अपात्र में गाय और सर्प जितना भेद होता है। गाय को सूखा तृण खिलाने पर भी वह दूध के रूप में परिणत होता है और सर्प को दूध पिलाने पर भी वह विष के रूप में परिणत होता है, इसलिए यहां यह कहना सार्थक होगा कि दान के सभी प्रकार धर्म के अंग नहीं होते।
शास्त्रों में दान के महत्त्व को बहुत उजागर किया गया है। केवल देने मात्र से व्यक्ति पुण्यार्थी और धर्मार्थी नहीं हो जाता। दान देना एक बात है। उसके पीछे धन का ममत्व छूटना अथवा आसक्ति का त्याग होना अन्य बात है। वास्तव में वही दान दान है जिसमें ममत्व का त्याग होता है। उसे विसर्जन भी कहा जा सकता है। दान और विसर्जन में यही अन्तर है कि दान में देश, काल, पात्र की अनिवार्यता रहती है। उसमें नाम, कीर्ति, सम्मान की भी भावना बनी रहती है। विसर्जन में केवल त्याग का महत्व होता है। वह त्याग ही व्यक्ति को बहुत-सी उपाधियों से बचाता है। जब छोड़ने की मनोवृत्ति का निर्माण होता है तब ही व्यक्ति विसर्जन कर सकता है। वह विसर्जन त्याग-चेतना का प्रतीक है।
प्रस्तुत काव्य के प्रणेता आचार्य सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत 'दान प्रकरण' में दान का अतिशय वर्णन किया है। वह दान के लोकोत्तर परिप्रेक्ष्य में यथार्थ प्रतीत नहीं होता। यदि दान ही मनुष्य के लिए सर्वेसर्वा होता तो आज जो समस्याएं पनप रही हैं वे कभी नहीं होतीं। ग्रन्थकर्ता ने सुपात्र की चर्चा अवश्य की है, पर सुपात्र कौन, उसके क्या लक्षण होने चाहिए, १. रूपक की भाषा में कहा गया-गाय पात्र है और सर्प अपात्र।
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