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सिन्दूरप्रकर
महात्मा गांधी ने दरिद्रता और भिखमंगी बढ़ाने वाला दान कहा। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि 'बिना प्रामाणिक परिश्रम के किसी भी चंगे मनुष्य को खाना देना मेरी अहिंसा बर्दाश्त नहीं कर सकती। यदि मेरा वश चले तो जहां मुफ्त खाना दिया जाता है, ऐसा प्रत्येक सदाव्रत अथवा अन्नछत्र बन्द करा दूं।'
विनोबाजी ने कहा- दुनिया में बिना शारीरिक श्रम के भिक्षा मांगने का अधिकार केवल सच्चे संन्यासी को है। ऐसे संन्यासी को छोड़कर किसी को भीख मांगने का अधिकार नहीं है । '
आचार्य अमितगति ने शुद्ध दान को पुष्ट करते हुए कहा--- 'वितीर्य यो दानमसंयतात्मने, जनः फलं काङ्क्षति पुण्यलक्षणम् । वितीर्य बीजं ज्वलिते स पावके, समीहते शस्यमपास्तदूषणम्।।' जो व्यक्ति असंयतात्मा को दान देकर पुण्यरूप फल की आकांक्षा करता है वह जलती अग्नि में बीज फेंककर धान पैदा करना चाहता है। इसी प्रकार सोमदेव सूरी ने कहा- 'भस्मनि हुतमिवापात्रेष्वर्थव्ययः' अपात्र (असंयमी) को दान देना राख में आहुति देने के समान व्यर्थ है । आचार्य भिक्षु ने सुपात्र दान की महिमा का उल्लेख करते हुए लिखा
'सुपात्र नै दियां संसार घटै छै, कुपात्र नै दियां वधै संसार । ए वीर वचन साचा कर मानों, तिण में शंका नहीं छै लिगार । । ' सुपात्र को देने से संसार घटता है, कुपात्र को देने से संसार बढ़ता है, यह वीर प्रभु का यथार्थ वचन है। इसमें शंका के लिए तनिक भी स्थान नहीं है।
इसी प्रकार आचार्य भिक्षु ने सुपात्र दान को मोक्ष का मार्ग और कुपात्र दान को संसार भ्रमण का हेतु बताते हुए लिखा है'सुपात्र दान मुगति से मारग, कुपात्र सूं रुले संसार । ' आवश्यकताओं का निर्वहन करना भी एक सामाजिक दायित्व है। उसके साथ-साथ लोकोत्तर साधना की पृष्ठभूमि भी मनुष्य के जीवन से जुड़ी हुई है। उसकी साधना करना भी उसकी व्यक्तिगत साधना है। दोनों ही स्थितियों में वह दोनों प्रकार का दान देता है। लौकिक दृष्टि से दिया जाने वाला दान सांसारिक अनुबन्ध का कारण होता है और लोकोत्तर दृष्टि से दिया जाने वाला दान परमार्थ को बढाने वाला होता है । यद्यपि दोनों की विपरीतगामी दिशाएं है। दोनों को एक समानान्तर रेखा में
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