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अवबोध-२३ ।
२०५ 'एरण की चोरी करी, दीयो सूई को दान।
ऊपर चढ़ देखण लागो कद आवै विमान।।' एरण की चोरी कर सूई का दान देना और फिर अपने गृह-प्रांगण में विमान के उतरने की प्रतीक्षा करना दान का कौन-सा सुन्दर रूप है? अनैतिक आचरणों से अर्जित धन में से धन का कुछ अंश दान दे देना कौनसा नैतिक कार्य है? दान देकर प्रतिफल की आकांक्षा करना भी कौनसा सामाजिक हित है? पर जो चल रहा है वह किसी से अज्ञात नहीं है। हर व्यक्ति उसी प्रवाह में बह रहा है। ___दूसरी ओर दान लेने वाला भी गरीबी, बेरोजगारी की आड़ में धन को ऐंठना चाहता है। उससे भिखमंगी, बेरोजगारी तो पनप ही रही है उसके साथ-साथ श्रमनिष्ठा का मूल्य भी घट रहा है। कहते हैं कि विधाता ने मनुष्य को दो हाथ इसलिए दिए कि वह अपनी रोजी-रोटी कमाकर अपना पेट भर सके। पर मनुष्य अपने दोनों हाथों को भी दूसरों के हाथों में सौंपकर अकर्मण्यता का जीवन जी रहा है। वह चाहता सब कुछ है, पर करता कुछ नहीं। वह अपनी रोटी भी दूसरों के तवे पर सेकता है। उसका परिणाम है कि व्यक्ति पुण्य के नाम पर दिन में भीख मांगता है
और रात में उन रुपयों की शराब खरीदता है, उन रुपयों से जुआ खेलता है। इस प्रकार दाता ने जो दिया और याचक ने जो लिया उसका न तो सदुपयोग होता है और न ही किसी को पुण्य का लाभ मिलता है। दान का यथार्थ में जो उद्देश्य होना चाहिए वह दोनों ओर से विघटित हो जाता है।
तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु ने दान के संदर्भ में महान् क्रान्ति की। उनका अभिमत प्रचलित मान्यता से सर्वथा विपरीत था। उन्होंने दान देने से पूर्व दाता, देय, और याचक की मीमांसा पर बहुत बल दिया। उनका सिद्धान्त था कि आध्यात्मिक, लोकोत्तर अथवा पारमार्थिक दान वही हो सकता है, जिसमें देने वाला, लेने वाला और देयवस्तु-तीनों शुद्ध होते हैं। उन तीनों में से यदि एक भी अशुद्ध है तो वह दान कभी शुद्ध नहीं हो सकता और वह आध्यात्मिक दान नहीं कहला सकता, इसलिए ऐसे दान के लिए त्रिकोणात्मक शुद्धता की आवश्यकता है। जैसे घृत, आटा और चीनी-इन तीनों के योग से हलुआ तैयार होता है, वह अन्यान्य वस्तुओं से नहीं बनता, वैसे ही जिस दान से असंयम का पोषण होता है, वह दान निरवद्य नहीं कहला सकता। ऐसे दान को
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