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दान प्रकरण
२३.अवबोध
भारतीय संस्कृति में दान को एक पवित्र कार्य के रूप में स्वीकार किया गया है, इसलिए भारतीय साहित्य में दान का कुछ अधिक ही महत्त्व रहा है। दान के पीछे मुख्यतया अनुग्रह का भाव तो छिपा हुआ है ही, पर उसके साथ भारतीय मानस में एक अवधारणा भी जमी हुई है कि दान देने से पुण्य का लाभ मिलता है। किसी समर्थ व्यक्ति द्वारा अपनी ओर से जरूरतमन्द लोगों की सहायता करना, परोपकार के लिए किसी को कुछ देना अथवा सामाजिक व्यवस्था के लिए सहभागिता के रूप में अपने आप को प्रस्तुत करना आदि दान के अनेक प्रकार हो सकते हैं।
प्राचीन काल में दान समाज-व्यवस्था का एक सुन्दरतम रूप था। दक्षिण भारत में उस व्यवस्था के अन्तर्गत दान के चार प्रकार प्रचलित थे-अन्नदान, शिक्षादान, औषधदान तथा अभयदान। उत्तर भारत में राजाओं की ओर से अनेक प्रकार की दानशालाएं चलती थीं। अकाल आदि परिस्थितियों में अकाल-राहत के लिए राज्यकोष से विशेष व्यवस्थाएं की जाती थीं, पदयात्रियों की सुविधा के लिए आहार आदि का दान दिया जाता था। उस समय दान विविधरूपों में प्रचलित था। यह सत्य है कि प्राचीन काल में दान का जो स्वरूप था वह अर्वाचीन परम्परा में बहुत कुछ बदल गया। बदलती संस्कृति और बदलते युग में मानवीय दुर्बलताओं की झलक कुछ ज्यादा ही देखने को मिलती है। आज का दानदाता नाम की भावना, यश-कीर्ति तथा सामाजिक प्रतिष्ठा की भूख से ज्यादा ही प्रताड़ित है तो दूसरी ओर दान लेने वाले के मन में मुफ्तखोरी का मनोभाव पनप रहा है, इसलिए आज दान देना और दान लेना तो नाममात्र का रह गया और उसके पीछे पनपने वाली अन्यान्य आकांक्षाएं प्रबलता से अपना सिर उठा रही हैं। उसकी फलश्रुति है कि व्यक्ति सूई का दान देता है तो वह उसके बदले अपने घर में स्वर्ग से विमान को उतरते देखना चाहता है, इसलिए कविमानस ने उचित ही लिखा
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