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सिन्दूरप्रकर लक्ष्मी की साधना करना सहज-सरल कार्य नहीं है। उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य अनेक कष्टों को झेलता है। उसके लिए वह क्या क्या नहीं करता? वह स्थान-स्थान पर घूमता है, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी तथा अन्यान्य अनेक कष्टों को भोगता है, मानसिक क्लेशों को सहता है और अत्यन्त निकृष्ट कार्यों को करने के लिए भी तैयार हो जाता है।
सूरीश्वर सोमप्रभ ने भी उसकी एक झलक का उल्लेख करते हुए कहा है-धनार्थी व्यक्ति को नीच पुरुषों की चापलूसी करनी होती है, उनके सामने झुकना पड़ता है, गुणविहीन शत्रु का गुणोत्कीर्तन करना पड़ता है तथा अकृतज्ञ स्वामी की सेवा में भी सन्तोष का अनुभव करना होता है। ___ इतना सब कुछ होते हुए भी मनुष्य की अन्धी दौड़ धन के पीछे लगी हुई है। वहां अर्थ-अनर्थ की बात गौण हो जाती है और धन उसके लिए प्रमुख बन जाता है। मनुष्य का सारा प्रयत्न लक्ष्मी को प्रसन्न करने में लगता है, पर लक्ष्मीदेवी को प्रसन्न करना किसी के वश की बात नहीं है। फिर भी लक्ष्मी नीच पुरुषों के पास जाती है। किसी ने इस रहस्य को जानने के लिए लक्ष्मी से पूछा-हे लक्ष्मी माता ! तुम मूों को ही प्रायः धन देती हो। क्या विद्वानों के साथ तुम्हारा कोई मत्सरभाव है? लक्ष्मी ने जिज्ञासु को समाहित करते हुए कहा-मैं मूों में अनुरक्त नहीं हूं, न मैं चंचल और मत्सरभाव रखने वाली हूं। विद्वज्जन तो विद्या के कारण लोगों के द्वारा पूज्य बन जाते है, किन्तु नीच अथवा मुर्ख व्यक्तियों की मेरे बिना कोई गति नहीं है।
यह भी एक सचाई है कि लक्ष्मी और सरस्वती का जन्मजात वैर है। जहां सरस्वती होती है वहां लक्ष्मी नहीं होती और जहां लक्ष्मी होती है वहां सरस्वती अपना प्रभाव नहीं दिखाती। दोनों में कौन बड़ी है, यह कहना कठिन है। फिर भी दोनों का अपने-अपने क्षेत्र में मूल्य है। सरस्वती को गौण कर मात्र लक्ष्मी की कामना करना भी अपूर्ण है और लक्ष्मी को गौण कर सरस्वती की उपासना करना भी अधूरा है। काश! दोनों की संयुक्त उपासना की जा सके।
प्रस्तुत प्रकरण के प्रतिपाद्य को इन शब्दों में रेखांकित किया जा सकता है• लक्ष्मी चपल, चंचल और तरलित है, उसका आसन कमलिनी
है। कमलिनी के संसर्ग से पैरों में कांटे लग जाने से वह कहीं एक
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