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अवबोध-२२
२०१ लोग दूसरों पर हंसने वाले होते हैं। वे उस समय इस सचाई को भूल जाते हैं कि लक्ष्मी सर्वदा उनके अधीन रहने वाली नहीं है। इस आशय से संस्कृतकवि ने लिखा'आपद्गतान् हससि किं द्रविणान्धमूढ!,
लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम्। किं तन पश्यसि घटीजलयन्त्रचक्रे,
रिक्ता भवन्ति भरिताः पुनरेव रिक्ताः।।' धन से अन्धे बने हुए हे मूढ मनुष्य! तुम आपद्ग्रस्त मनुष्य का उपहास क्यों करते हो? लक्ष्मी कभी स्थिर नहीं रहती, इसमें आश्चर्य क्या है? क्या तुम अरहट को नहीं देखते? उसके खाली डोल कुएं से पानी भरते हैं और पुन: वे बाहर आकर खाली हो जाते हैं। ___मनुष्य का कभी लक्ष्मीसंपन्न होना तथा कभी लक्ष्मीविपन्न होना निरन्तर चलता ही रहता है। लक्ष्मी का एकछत्र साम्राज्य कभी नहीं होता। यह महादेवी लक्ष्मी का ही प्रताप है कि वह मनुष्यों में बहुत-सी बुराइयों को भी उत्पन्न करती है। इसलिए नीतिकार ने लक्ष्मीजन्य विकारों को दर्शाते हुए कहा है
'बधिरयति कर्णविवरं, वाचं मूकयति नयनमन्धयति।
विकृतयति गात्रयष्टिं, संपद्रोगोयमद्भुतो राजन् ! ।।' हे राजन्! यह संपदा एक अद्भुत रोग है। यह कानों को बधिर, वाणी को मूक, नेत्र को अन्धा एवं शरीर को विकृत कर देता है।
किसी के पास लक्ष्मी आए और उसका चित्त विकृत न बने, वह अभिमानी और चिन्तित न बने, यह हो नहीं सकता। लक्ष्मी के प्रभाव से मनुष्य अनेक बुराइयों में चला जाता है।
प्रस्तुत काव्य के काव्यकार आचार्य सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत प्रकरण में लक्ष्मीगत विकारों का उपमाओं सहित सुन्दर विवेचन किया है। वे लिखते हैं-जैसे निद्रा मनुष्य को चैतन्यशून्य करती है वैसे ही लक्ष्मी मानव को विवेक-विकल बनाती है। जैसे मदिरा उन्माद पैदा करती है वैसे ही लक्ष्मी अहंकार को पुष्ट करती है। जैसे धूआं किसी को देखने में व्यवधान डालता है वैसे ही लक्ष्मी मनुष्य को अन्धा बनाती है। जैसे बिजली में चपलता होती है वैसे ही लक्ष्मी में अस्थिरता होती है। जैसे वन की ज्वाला प्यास को बढाती है वैसे ही लक्ष्मी लोभ को वृद्धिंगत करती है। जैसे कुलटा स्वेच्छा से घूमती है वैसे ही लक्ष्मी भी स्वतन्त्र विचरण करती है।
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