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________________ अवबोध - २२ १९९ होती है वही व्यक्ति लक्ष्मी को प्रसन्न कर सकता है, अपने गृह - आंगन में उसे प्रतिष्ठित कर सकता है। लक्ष्मी का स्वभाव है कि वह किसी एक स्थान पर अथवा किसी एक व्यक्ति के पास प्रतिबद्ध होकर निश्चल नहीं ठहरती । वह स्वतंत्र विहरण करना चाहती है। वह बादलों की छाया के समान अस्थिर, जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर तथा विद्युत् की भांति चपल होती है। बादलों की छाया क्षणभर के लिए पथिक को परितोष देने वाली होती है, किन्तु अगले ही क्षण वह आगे खिसक जाती है। पानी का बुलबुला पानी से उठता है और देखते-देखते पानी में ही विलीन हो जाता है। विद्युत् अचानक आकाश में चमकती है, किन्तु पलभर में आंखमिचौनी कर पलायित हो जाती है । लक्ष्मी भी मनुष्य को कुछ समय के लिए अपना लुभावना रूप दिखाती है और फिर कालान्तर में वह अपने रूप को छिपा लेती है। यही है लक्ष्मी का स्वभाव, यही है उसकी चपलता, चंचलता और तरलिता । आचार्य विनोबा भावे ने इस संदर्भ में कहा था- लक्ष्मी का कार्य है धन देना। संस्कृत में धन को द्रव्य कहा जाता है । द्रव्य का अर्थ है बहने वाला। यदि धन किसी के पास स्थिर रहता है तो उसका तात्पर्य है कि रुके हुए पानी की तरह उसमें बदबू आना । किसी साधु अथवा अकिंचन त्यागी को धन में बदबू आ सकती है। किन्तु जनसामान्य तो उसमें सौरभ का ही अनुभव करता है। संसार में एक कहावत भी है कि गृहत्यागी यदि धन रखता है तो वह अपनी साधना से च्युत होता है। यदि गृहस्थ के पास धन नहीं है तो समाज में उसका सम्मान फूटी कौड़ी के समान भी नहीं होता । एक सामाजिक प्राणी की सारी प्रतिष्ठा धन के कारण ही होती है। क्योंकि धन जीवननिर्वाह का एक प्रमुख साधन है। उसके बिना जीवन की आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा सकता। इसलिए महाभारत में कहा गया- 'अर्थस्य पुरुषो दासः दासस्त्वर्थो न कस्यचित् । ' मनुष्य धन का दास है। धन किसी का दास नहीं है। सामाजिक धरातल पर धन का मूल्यांकन कम नहीं किया जा सकता। संसार में तीन शक्तियों की पूजा होती है- अध्यात्म की शक्ति, सत्ता की शक्ति तथा धन की शक्ति । जिसके पास धन की शक्ति होती है वह दुनिया का बड़ा विजेता हो सकता है। महान् सिकन्दर मकदूनिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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