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अवबोध-२१
१९५ उत्तराध्ययनसूत्र में सूत्रकार ने कहा-जीव श्रोत्र आदि पांचों इन्द्रियों के निग्रह से मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द आदि विषयों में होने वाले रागद्वेष का निग्रह करता है। वह तत्संबन्धी-रागद्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्ध नहीं करता तथा पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। इससे स्पष्ट है कि इन्द्रियां कर्म-बन्धन का हेतु भी है और कर्मनिर्जरण का हेतु भी। इन्द्रियां शत्रु भी हैं और मित्र भी। जब इन्द्रियां रागद्वेष की उत्पत्ति का हेतु बनती है तब इन्द्रियां कर्मबन्धन का कारण और शत्रु बन जाती हैं, क्योंकि रागद्वेष मोहकर्म की प्रकृतियां हैं, संवेदन-चेतना की प्रतीक हैं। श्रोत्र आदि इन्द्रियों का असंयम मनोज्ञ शब्द आदि विषयों के प्रति राग उत्पन्न करता है और अमनोज्ञ शब्द आदि विषयों के प्रति द्वेष उत्पन्न करता है। इससे श्रोत्र आदि इन्द्रियां कर्मबन्ध का हेतु और शत्रु बन जाती हैं। यह परम्परा निरन्तर चलती रहती है। श्रोत्र आदि इन्द्रियों का निग्रह करने पर श्रोत्र आदि इन्द्रियों के निमित्त से होने वाला कर्मबन्ध रुक जाता है और अतीत में श्रोत्रेन्द्रिय के निमित्त से जो कर्मबन्ध हआ है उसकी निर्जरा हो जाती है। तात्पर्य की भाषा में जब तक संविज्ञानचेतना के साथ संवेदन-चेतना का संबंध नहीं होता तब तक व्यक्ति श्रोत्र आदि इन्द्रियों से संबंधित नए कर्मों का अर्जन नहीं करता और पूर्वबद्ध श्रोत्र आदि इन्द्रियों से संबंधित कर्मों को क्षीण कर देता है।
जितेन्द्रिय बनने के लिए मनोज्ञ-अमनोज्ञ, प्रिय-अप्रिय भाव का निग्रह करना आवश्यक है, यही साधना का केन्द्रबिन्दु है। इन्द्रियविजय की साधना वीतराग, साधु अथवा संन्यासियों के लिए जितनी आवश्यक है उतनी ही जरूरी है मानवमात्र के लिए। महामात्य कौटिल्य ने इसी संदर्भ में कहा था- 'अवश्येन्द्रियः चानंतोऽपि राजा सद्यो विनश्यति'-जिसकी इन्द्रियां वश में नहीं है वह चक्रवर्ती राजा भी शीघ्र ही विनाश को प्राप्त हो जाता है। एक सीमा तक शासक और सामाजिक प्राणी-दोनों के लिए इन्द्रिय-संयम की आवश्यकता है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में इन्द्रियजय की चर्चा करते हुए कहा गया- 'इन्द्रियजयः कामक्रोधलोभमानमदहर्षत्यागात् कार्यः।' इन्द्रियों को काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, हर्ष का त्यागकर विजित किया जा सकता है। ये सब इन्द्रिय-आसक्ति को उत्पन्न करते हैं। तात्पर्यार्थ में संविज्ञान-चेतना से संवेदन चेतना को पृथक् करना ही इन्द्रियदमन की साधना है।
इन्द्रियसंयम से शरीर और मन स्वस्थ रहते हैं और बुद्धि तथा भाव
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