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सिन्दूरप्रकर इन्द्रियनिग्रह कैसे कर सकते हैं? यह दम्भ नहीं तो क्या है?
इसका तात्पर्य है कि निस्सार भोजन करने वाले ऋषि-मुनि भी अपनी इन्द्रियों को विजित नहीं कर सके तो पौष्टिक आहार करने वाले इन्द्रिय-दमन कैसे कर सकते हैं? श्रीमद्भागवत में कहा गया-'इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्त्यपि यतेर्मनः'। इन्द्रियां संपीडित करने वाली होती हैं। वे संन्यासी के मन का भी हरण कर लेती हैं, विषयों की ओर उन्मुख कर देती हैं।
यह एक सचाई है कि प्रत्येक व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों में सुख की खोज कर रहा है। उसकी वह खोज बालुकणों में स्नेह पाने तथा कदली में सार खोजने जैसी है। अतः भक्तपरिज्ञा में कहा गया
'सुठुवि मग्गिज्जतो, कत्थवि केलीइ नत्थि जहसारो।
इंदियविसएसु तथा, नत्थि सुहं सुठुवि गविळं।।' बहुत खोज करने पर भी जैसे कदली में कहीं भी सार नहीं मिलता वैसे ही इन्द्रियविषयों में भी तत्वज्ञ पुरुषों ने अच्छी प्रकार खोज करके भी कहीं सुख नहीं देखा।
जो सुख इन्द्रियनिग्रह में है वह सुख अनियन्त्रित इन्द्रिय में कहां से प्राप्त होगा? आज का मनुष्य इन्द्रियसुखों को पाने की आशा से दौड़ रहा है। फिर भी उसे सुख नहीं मिल रहा है। आज का युग इन्द्रिय-असंयम के कारण अनेक समस्याओं तथा अपराधों से घिरा हुआ है। शरीर और चक्षु-असंयम के कारण बलात्कार एवं यौनशोषण जैसी जघन्य प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। जीभ की अत्यधिक लोलुपता के कारण शरीर विविध रोगों से आक्रान्त हो रहा है। मनोज्ञ शब्दादिक सुनने में गृद्ध बना हुआ व्यक्ति चारित्रहीन जीवन जी रहा है। इस प्रकार इन्द्रियविषयों में पागल बना हुआ मनुष्य क्या कुछ नहीं करता? ____ अध्यात्म के आचार्यों ने एक ऐसे उपाय की खोज की, जिससे इन्द्रियों का दमन भी हो जाए और इन्द्रियां भी अपने-अपने विषय का ज्ञान करती रहें। इस संदर्भ में आचार्यों ने कहा-इन्द्रियविषयों के साथ प्रिय-अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ, राग-द्वेष की चेतना जुड़ी हुई है। दोनों स्थितियों में रागद्वेषमुक्त चेतना से तटस्थभाव से प्रेक्षा करना। चाहे राग का भाव आए, चाहे द्वेष का भाव आए, चाहे प्रियता का भाव आए, चाहे अप्रियता का भाव आए, चाहे मनोज्ञभाव आए, चाहे अमनोज्ञभाव आए-दोनों का निग्रह करना तथा दोनों में सम रहना ही इन्द्रियदमन की साधना है।
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