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________________ अवबोध - २१ १९३ है । वह पवन की भांति चंचल है। वह भाव मन को चंचल बना रहा है। विषय इन्द्रियों को चंचल बना रहे हैं और मन उस चंचलता में अपनी आहुति देकर इन्द्रियविषय-विकारों को उत्तेजित कर रहा है। इसी उद्देश्य से केशी कुमारश्रमण ने गणधर गौतम से पूछा था - गौतम! तुम मनरूपी साहसिक भयंकर दुष्ट अश्व पर चढे हुए हो। वह निरन्तर दौड़ रहा है। वह तुम्हें उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाएगा? गौतम ने समाधान देते हुए कहा— श्रमण ! तुम ठीक कह रहे हो। जब-जब वह उन्मार्ग में जाने का प्रयत्न करता है तब मैं श्रुत की लगाम खींचकर उसे रोक लेता हूं। वह अपने मार्ग पर आ जाता है। इन्द्रियों की उच्छृंखलता ही शारीरिक, मानसिक और भावात्मक स्वास्थ्य को रुग्ण बना रही है और उन्हीं के कारण ही कभी-कभी मनुष्य को मौत का मुंह भी देखना पड़ता है। विवेकचूडामणि में कहा गया'शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पञ्च पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः । कुरङ्ग-मातङ्ग-पतङ्ग-मीन - भृङ्गा नरः पञ्चभिरञ्चितः किम् ? ।। ' पांच इन्द्रियों के शब्दादिक पांच विषयों में से एक-एक विषय से बन्धे हुए मृग, हाथी, पतंग, मछली एवं भ्रमर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। फिर पांचों विषयों से जकड़ा हुआ मनुष्य अपने आपको उनसे कैसे बचा सकता है ? उत्तराध्ययनसूत्र में इसे एक निदर्शन के द्वारा समझाया गया है'अपत्थं अंबगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए' । इन्द्रियों के वशवर्ती होकर स्वाद में लोलुप राजा अपथ्य आम को खाकर अपना राज्य गवां बैठा और वह काल-कवलित हो गया। वैसे ही संयमी मुनि संयम के लिए अपथ्य का सेवन कर आध्यात्मिक राज्य को खो देता है। अनेक ऋषि - महर्षि इन्द्रियविषयों में आकृष्ट होकर, मन की भावनाओं को विकृत कर अपनी साधना से भ्रष्ट हुए। उसका निदर्शन भर्तृहरि के इस संस्कृत श्लोक में मिलता है'विश्वामित्र - पराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना स्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । आहारं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवा स्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भं समालोक्यताम् ।। ' वायु, जल और पत्तों का आहार करने वाले विश्वामित्र एवं पराशर आदि अनेक तपस्वी ऋषि स्त्री के सुन्दर मुखकमल को देखकर मोहग्रस्तविकारग्रस्त हो गए, तब घी, दूध एवं दधियुक्त भोजन करने वाले मनुष्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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