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अवबोध - २१
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है । वह पवन की भांति चंचल है। वह भाव मन को चंचल बना रहा है। विषय इन्द्रियों को चंचल बना रहे हैं और मन उस चंचलता में अपनी आहुति देकर इन्द्रियविषय-विकारों को उत्तेजित कर रहा है। इसी उद्देश्य से केशी कुमारश्रमण ने गणधर गौतम से पूछा था - गौतम! तुम मनरूपी साहसिक भयंकर दुष्ट अश्व पर चढे हुए हो। वह निरन्तर दौड़ रहा है। वह तुम्हें उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाएगा? गौतम ने समाधान देते हुए कहा— श्रमण ! तुम ठीक कह रहे हो। जब-जब वह उन्मार्ग में जाने का प्रयत्न करता है तब मैं श्रुत की लगाम खींचकर उसे रोक लेता हूं। वह अपने मार्ग पर आ जाता है।
इन्द्रियों की उच्छृंखलता ही शारीरिक, मानसिक और भावात्मक स्वास्थ्य को रुग्ण बना रही है और उन्हीं के कारण ही कभी-कभी मनुष्य को मौत का मुंह भी देखना पड़ता है। विवेकचूडामणि में कहा गया'शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पञ्च पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः । कुरङ्ग-मातङ्ग-पतङ्ग-मीन - भृङ्गा नरः पञ्चभिरञ्चितः किम् ? ।। ' पांच इन्द्रियों के शब्दादिक पांच विषयों में से एक-एक विषय से बन्धे हुए मृग, हाथी, पतंग, मछली एवं भ्रमर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। फिर पांचों विषयों से जकड़ा हुआ मनुष्य अपने आपको उनसे कैसे बचा सकता है ?
उत्तराध्ययनसूत्र में इसे एक निदर्शन के द्वारा समझाया गया है'अपत्थं अंबगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए' । इन्द्रियों के वशवर्ती होकर स्वाद में लोलुप राजा अपथ्य आम को खाकर अपना राज्य गवां बैठा और वह काल-कवलित हो गया। वैसे ही संयमी मुनि संयम के लिए अपथ्य का सेवन कर आध्यात्मिक राज्य को खो देता है। अनेक ऋषि - महर्षि इन्द्रियविषयों में आकृष्ट होकर, मन की भावनाओं को विकृत कर अपनी साधना से भ्रष्ट हुए। उसका निदर्शन भर्तृहरि के इस संस्कृत श्लोक में मिलता है'विश्वामित्र - पराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना
स्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । आहारं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवा
स्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भं समालोक्यताम् ।। ' वायु, जल और पत्तों का आहार करने वाले विश्वामित्र एवं पराशर आदि अनेक तपस्वी ऋषि स्त्री के सुन्दर मुखकमल को देखकर मोहग्रस्तविकारग्रस्त हो गए, तब घी, दूध एवं दधियुक्त भोजन करने वाले मनुष्य
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