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सिन्दूरप्रकर भी पवित्र बने रहते हैं। इसलिए गीता में कहा गया- 'वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।' प्रज्ञा वहीं प्रतिष्ठित होती है जिसकी इन्द्रियां वश में होती हैं। इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता किस प्रकार सध सकती है, उसका एक निदर्शन गीता में इस प्रकार है--
'यदा संहरते चायं कुर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।' जैसे कछुआ सब ओर से अपने अङ्गों को समेट लेता है वैसे ही जब पुरुष इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से हटा लेता है तब उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है।
तत्त्वानुशासन में इन्द्रियों को वश में करने का उपाय बताते हुए कहा गया है
'ज्ञानवैराग्यरज्जभ्यां, नित्यमत्पथवर्तिनः।
जितचित्तेन शक्यन्ते धर्तुमिन्द्रियवाजिनः।।' इन्द्रियरूपी घोड़े नित्य उत्पथ में जा रहे हैं, मन को जीतने वाला व्यक्ति ज्ञान और वैराग्य की लगाम से उन्हें अपने वश में कर सकता है।
इन्द्रियों को वश में करने का तात्पर्य है-मन को वश में करना और जगत् को वश में करना। उसके बिना घर का त्याग करना, मौन को धारण करना, आचार-व्यवहार में दक्ष होना, गण में रहना तथा आगमपठन में रत रहना, तप तपना आदि प्रयत्न राख में आहुति देने के समान हैं, इसलिए इन्द्रिय संयम सबसे बड़ा वशीकरण मंत्र हैं। उस मंत्र की सिद्धि के लिए प्रतिदिन कायोत्सर्ग की मुद्रा में संकल्प करें-मेरा राग का भाव घट रहा है, द्वेष का भाव घट रहा है। मैं केवल ज्ञाता-द्रष्टा हूं। जब संकल्प क्रमशः प्रबल होगा तो संविज्ञान-चेतना का विकास होता जाएगा
और संवेदना स्वतः कम होती जाएगी। यही है आध्यात्मिक विकास का सोपान और यही है इन्द्रियसंयम की साधना। प्रस्तुत प्रकरण का निष्कर्ष इन वाक्यों में पढा जा सकता है• इन्द्रियों के विषय इन्द्रियों को चंचल बनाते हैं और उनको प्रियता-अप्रियता, राग-द्वेष तथा मनोज्ञ-अमनोज्ञ भावों से विकृत करते हैं। • इन्द्रियां संविज्ञान-चेतना के स्तर तक बुरी नहीं हैं, बुरी है
संवेदन-चेतना के स्तर पर। • इन्द्रियसंयम की साधना का अर्थ है-इन्द्रियों को संविज्ञान
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