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इन्द्रियदमन प्रकरण
२१.अवबोध
शिष्य के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। वह गुरु के सान्निध्य में पहुंचा। विनम्रता से वन्दन करते हुए बोला-गुरुदेव! आप पुनः पुनः अपने उपदेशों में इन्द्रियदमन की शिक्षा देते हैं। इन्द्रियां मनुष्यमात्र के लिए बहुत उपयोगी हैं। उन्होंने हमारा क्या बिगाड़ा है? इन्द्रियां ही तो हमारे बाह्य जगत् से सम्पर्क करने का माध्यम बनती हैं। वे ही हमें बाहरी जगत् का ज्ञान कराती हैं। यदि मनुष्य कानों को बन्द कर ले तो भाषा का अपना क्या मूल्य रहेगा? भाषा दूसरों के साथ सम्पर्क साधने का एक माध्यम है। समाज-निर्माण का मूलभूत तत्त्व भी भाषा ही है। इसी प्रकार आंख दूसरों को देखती हैं, रूप का ज्ञान कराती हैं। चक्षु का संयम करने से वह दूसरों को कैसे देख सकेगा, बिना देखे वह दूसरों को कैसे पहचान सकेगा? आंखों को मूंदकर रहना क्या जग में अन्धेरा नहीं है? प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय में व्याप्त होकर उस-उस विषय का ज्ञान कराती है तब इन्द्रियदमन क्यों? __गुरु ने शिष्य के तर्क को सुना। तर्क का प्रतिवाद करते हुए गुरु ने कहा-वत्स! तुम जो कहते हो वह सत्यांश है, पूरा सत्य नहीं है। इन्द्रियां हमारे ज्ञान का स्रोत हैं। वे केवल ज्ञान का ही वहन नहीं करती, संवेदन भी करती हैं। मनुष्य दो प्रकार की चेतनाओं के मध्य जीता है। एक चेतना है-संविज्ञान-चेतना, दूसरी चेतना है-संवेदन-चेतना। दोनों चेतनाओं का दरवाजा एक ही है। उस दरवाजे से आदमी भी आ सकता है और पशु भी। उससे अच्छा भी आ सकता है और बुरा भी। जब इन्द्रियां संविज्ञानचेतना तक सीमित रहती हैं, उनके माध्यम से कोरी ज्ञान की चेतना बहती है तब तक इन्द्रियां हमारे लिए उपादेय हैं, क्योंकि ज्ञान उपादेय है। उदाहरणस्वरूप व्यक्ति केवल आंख से देखता है, केवल कान से सुनता है। यह उसकी संविज्ञान-चेतना है। यह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षयोपशम है। वहां इन्द्रियदमन की बात गौण है।
जब इन्द्रियां संवेदन-चेतना के धरातल पर चली जाती हैं वहां
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