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________________ १९० सिन्दूरप्रकर आकांक्षा है तो उसे गणिजनों का संग स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने निर्गुण व्यक्तियों की संगति का वर्जन करते हुए भी उनके कटुक परिणामों की चर्चा की है। वे कहते हैं कि निर्गुण पुरुषों की संगति महिमारूपी कमल पर हिमपात, धनधान्य आदि की वृद्धि करने वाले मेघ के लिए प्रचंड वायु, दयारूप उपवन को रौंदने के लिए हाथी, कल्याणरूपी गिरि के भेदन के लिए वज्र, कुमतिरूप अग्नि को जलाने के लिए इन्धन तथा अन्यायरूपी लताओं को पनपने के लिए कन्द के समान है। ऐसी संगति कल्याण की अभिलाषा करने वालों के लिए सर्वथा अनाश्रयणीय है। इसी सत्य को पुष्ट करते हुए नीतिकार भी कहते हैं- 'पुरुषा अपि बाणा अपि गुणच्युताः कस्य न भयाय'-गुणविहीन पुरुष और गुण अर्थात्. डोरी रहित बाण किसको भय उत्पन्न नहीं करते? इसलिए गुणविहीन की संगति वर्जनीय है। . प्रस्तुत प्रकरण की प्रतिपत्ति के रूप में कुछेक सत्यों का प्रतिपादन इस प्रकार है. गणिजनों का संगम जीवन का रूपान्तरण करता है तथा बुराइयों के निवारण के लिए बहुत बड़ा आलम्बन बनता है। गुणग्राही बनकर किसी के अथवा कहीं से गुणों का अर्जन करना स्वयं की विशेषता है। निर्गुण व्यक्तियों की संगत से गुण भी दुर्गुण के रूप में परिणत हो जाते हैं। गुणिजनों की पहचान के लिए भी अपनी विवेक-शक्ति का विकास करना आवश्यक है। पूजा अथवा सम्मान सदा गुणों का होता है। व्यक्ति में गुरुता अथवा प्रभुता भी गुणों के कारण आती है। जहां गुणग्राहकता नहीं होती वहां विकास स्तंभित हो जाता आध्यात्मिक विकास के लिए किसी के गुणों को देखकर आह्लादित होना भी उन गुणों का स्वीकरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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