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सिन्दूरप्रकर
उनको जीवन में उतारने का प्रयत्न करते हैं। गुणग्राहकता के विषय में संत कबीर ने सत्य ही कहा है
'जब गुण 'के गाहक मिलें, तब गुण लाख बिका | जब गुण का गाहक नहीं, कौड़ी बदले जाय । । '
गुणों का मोल तभी बढ़ता है जब उन्हें लेने वाला कोई गुणग्राही होता है। जब गुणों को ग्रहण करने वाला ही कोई नहीं होता तब उनका भी अवमूल्यन हो जाता है, उनका मोल कौड़ियों में होता है ।
यह सच है कि हीरा अथवा रत्न अपना मूल्यांकन स्वयं नहीं कर सकता। उसे भी जौहरी जैसे किसी गुणज्ञ पारखी की आवश्यकता होती है। वैसे ही गुणज्ञ व्यक्ति ही किसी के गुणों की परख अथवा मूल्यांकन कर सकता है। यदि किसी में कोई गुण ही नहीं है तो उसे कोई पारखी मिल भी गया तो वह उसका मूल्यांकन करेगा भी क्या ? वह तो उसे निकृष्ट ही समझेगा ।
रूप के सौंदर्य से किसी की गुणवत्ता का अंकन नहीं किया जा सकता। कभी-कभी बाहरी सौन्दर्य भी व्यक्ति को भटकाने वाला होता है। इसी आशय से कवि ने भौंरे को संबोधित करते हुए कहा
'नहीं चम्पा नहीं केतकी, भंवर! देख मत भूल । रूपरूड़ो गुणबाहिरो, रोहिड़ा रो फूल । । '
हे भंवर! तू किसको देखकर लुब्ध हो रहा है? यह कोई चम्पा अथवा केतकी का फूल नहीं है । यह तो रोहिड़े का फूल है। यह रूप से सुन्दर है, किन्तु इसमें कोई गुण नहीं है, इसलिए तू इसको देखकर अपने आप को मत भूल ।
जो व्यक्ति गुणज्ञ नहीं होते, वे गुणों को भी ठुकरा देते हैं और गुणिजनों की निन्दा भी करते हैं। उनके लिए गुण- अगुण का विवेक करना दुर्लभ होता है। चाणक्यनीति में ऐसे व्यक्तियों के लिए कहा गया' न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष, स तं सदा निन्दति नात्र चित्रम् | यथा किराती करिकुम्भलब्धां मुक्तां परित्यज्य बिभर्त्ति गुञ्जाम् ।।' जो व्यक्ति जिसके गुणोत्कर्ष को नहीं जानता वह सदा उसकी निन्दा ही करता है, इसमें आश्चर्य नहीं है। जैसे कि भीलनी हाथी के कुम्भस्थल से प्राप्त मुक्ता को छोड़कर गुंजा को ही धारण करती है।
जैसे गुणों का ग्रहण करना, उन्हें पहचानना कठिन होता है वैसे ही गुणवान् पुरुषों की संगत करना भी कठिनतम होता है। कभी-कभी
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