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सिन्दूरप्रकर में दौर्जन्य संसर्ग का वर्जन करते हुए कहा है-कुपित सर्प के मुख में हाथ डालना, जलते हुए अग्निकुंड में कूदना तथा भाले की नोक को उदर में डालना कदाचित् अच्छा हो सकता है, किन्तु ज्ञानी पुरुषों को दुर्जनता का आश्रय लेना कदापि अच्छा नहीं होता, क्योंकि वह विपदाओं का घर है। __ ग्रन्थकार सूरीश्वर अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए भले पुरुषों को सलाह देते हैं कि वे यश और वैभव के लिए दुर्जनता का आचरण न करें। वह एक कुत्सित आचरण है। उसका आचरण करना मानो जलसिंचन के बहाने धान्य के खेत में अग्नि फेंकने के समान है। पुन: वे कहते हैं कि सौजन्य का आचरण करने वालों के लिए निर्धनता श्रेष्ठ हो सकती है, किन्तु अनैतिक आचरण से अर्जित संपदा कभी श्रेयस्कर नहीं होती, क्योंकि उसका परिणाम बुरा होता है। सहज कृशता जिस प्रकार भविष्य में सुन्दर लगती है, शोथ से उत्पन्न स्थूलता कभी अच्छी नहीं लगती वैसे ही दुर्जनता कभी अथवा किसी परिस्थिति में अच्छी नहीं हो सकती।
___ अतः व्यक्ति के लिए सुजनता का आचरण करना अथवा सज्जन पुरुषों का आश्रय लेना यश को बढ़ाने वाला, वैभव का विस्तार करने वाला तथा भवभ्रमण को मिटाने वाला होता है। आचार्य भर्तृहरि ने सज्जनों और दुर्जनों के साथ मैत्री का स्वरूप दर्शाते हुए कहा है
'आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्। दिनस्य पूर्वार्द्ध-परार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खल-सज्जनानाम् ।।'
दर्जनों की मित्रता दिन के पूर्वार्ध की छाया के समान है। वह प्रारंभ में बड़ी होकर क्रमशः क्षीण होती जाती है। सज्जनों की मित्रता दिन के परार्द्ध की छाया के समान है। वह प्रारंभ में छोटी होकर क्रमशः बढ़ती जाती है।
जो व्यक्ति अपना कल्याण अथवा सुयश चाहते हैं उन्हें सदा सौजन्य का आचरण करना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण की फलश्रुति के रूप में कुछेक तथ्यों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है
• सुजनता संपदाओं का घर है और दुर्जनता विपदाओं का। • सुजनता व्यक्ति का अपना निजी गुण है और दुर्जनता
अवगुण। दुर्जन पुरुषों का संसर्ग करना अनेक विपदाओं को आमंत्रित करता है। सौजन्य से सुयश, कल्याण और वैभव की वृद्धि होती है,
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