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अवबोध-१९
१८३ हैं, दूसरों को प्रताडित-संतापित करने वाले स्वयं ही प्रताडित-संतापित होते हैं। जहां दुर्जन व्यक्ति अपनी बुराई को नहीं छोड़ता वहां सज्जन पुरुष सदा अपनी सुजनता बनाए रखता है, वह कभी परिस्थितियों से विचलित नहीं होता। इसलिए नीतिकार सत्य कहते हैं
'सुजनो न याति विकृति, परहितनिरतो विनाशकालेऽपि।
छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य।।' परहित में लगा हुआ सज्जन पुरुष विनाश काल प्राप्त होने पर भी विकृति-दुर्जनता को प्राप्त नहीं होता, वह अपनी सुजनता बनाए रखता है, जैसे कि चन्दनवृक्ष काटे जाने पर भी उसकी सुगन्ध कुठार के मुख को सुरभित करती है।
सज्जन पुरुष की भलाई और दुर्जन पुरुष की बुराई आतप और छाया की भांति विपरीतगामी दिशाएं हैं। दोनों में कोई मेल नहीं है। दुर्जन व्यक्ति की दुर्जनता को सज्जनता में बदलना नीम को मीठा और लहसुन की दुर्गन्ध को मिटाने के समान है, जैसे-नीम के वृक्ष को कितनी ही बार दूध, घी अथवा गुड़ से सिंचित किया जाए अथवा लहसुन को बार-बार कस्तूरी से मर्दित किया जाए तो भी नीम कभी मीठा नहीं होता और लहसुन कभी अपनी दुर्गन्ध को नहीं छोड़ता, वैसे ही दुर्जन पुरुष अपनी बुराई को कभी नहीं छोड़ता, इसलिए संतों ने कहा
'दुर्जन कबहु न सुधरै, सौ साधन के संग।
मूंज भिजोवे गंग में, ज्यूं भीजै ज्यूं तंग।।' जिस प्रकार मुंज को गंगा के पानी में भिगोने पर भी वह सिकुड़ता ही जाता है वैसे ही दुर्जन व्यक्ति सत्संगति के सैंकड़ों अवसर पाने पर भी कभी नहीं सुधरता, उसमें दुर्जनता वैसी की वैसी बनी रहती है।
दुर्जन चाहे कितना ही विद्वान् हो, पढा-लिखा हो, फिर भी वह छोड़ने योग्य होता है। इसी सत्य को प्रकट करते हुए आचार्य भर्तृहरि कहते हैं
'दुर्जनः परिहर्त्तव्यो, विद्यया भूषितोऽपि सन् ।
मणिनालंकृतः सर्पः, किमसौ न भयंकरः?' जिस प्रकार सांप मणि से विभूषित होता है, फिर क्या वह भयंकर नहीं होता ? उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति विद्या से अलंकृत होने पर भी सदा त्याज्य होता है।
प्रस्तुत काव्य के रचनाकार आचार्य सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत प्रकरण
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