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सिन्दूरप्रकर
मांस खाता है-पीठ को काटता है। तत्पश्चात वह कानों के इर्द-गिर्द आकर गुनगुनाता है और बाद में छिद्र को देखकर निःशंक होकर सहसा उसमें प्रवेश कर जाता है, उसी प्रकार दर्जन व्यक्ति प्रथम पैरों में गिर कर चापलूसी करता है, फिर वह पीठ पीछे चुगली खाता है, कानों में मीठीमीठी बातें करता है और मौका पाकर भीतर घुस जाता है, फिर वह निःशंक होकर भीतर से घात करता है।
दुष्टों की ये दुश्चेष्टाएं मच्छर के समान होती हैं। इसलिए नीतिज्ञ व्यक्ति सुझाव देते हैं कि दुर्जन के साथ प्रीति और वैर दोनों ही नहीं करने चाहिए। उसका व्यवहार अंगारें के समान होता है। अंगारा गर्म हो तो हाथ जलाता है और ठंडा हो तो हाथ को काला करता है। उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति की सारी चेष्टाएं दुर्जनता से ओत-प्रोत होती हैं।
सज्जन व्यक्तियों में सज्जनता का महान् गुण होता है। वे सदा परहित में उद्यत रहते हैं। उनका चिन्तन और व्यवहार सदा सकारात्मक होता है। वे कभी परदोष-कथन नहीं करते और पर-सम्पदाओं में लुब्ध नहीं होते। उनमें आत्मश्लाघा नहीं होती। वे न्याय और औचित्य को कभी नहीं भूलते तथा किसी के अप्रिय कहने पर भी वे कभी क्रोध नहीं करते। वे दूसरों की पीड़ा को देखकर स्वयं पीड़ा की अनुभूति करते हैं तथा दूसरों के गुणों को देखकर स्वयं प्रमुदित होते हैं। वे अपने व्यवहार से किसी को उत्पीडित नहीं करते। उनका अन्तःकरण सदा करुणा से छलकता रहता है। उनकी आंखों में निरन्तर प्रेम और आचरण में भलाई झलकती है। उनकी विद्या, धन तथा शक्ति गर्व के लिए नहीं होती, दूसरों के बमन के लिए नहीं होती। वे उनका उपयोग परहित के लिए करते हैं। वे जो सोचते या कहते हैं उसके अनुरूप वे उसका संपादन भी करते हैं। उनकी सारी शक्ति परार्थ में ही लगती है। वे सबके लिए इष्टचिन्तन और मंगलकामना करते हैं। उनकी नीति किसी भी परिस्थिति में 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' की नहीं होती। वे दुर्जनों के साथ भी सज्जनता का व्यवहार करते हैं। इसी आशय से संत कबीर ने कहा था
___ 'जो तोको कांटा बुवै, ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है, ताको है तिरसूल।।' जो व्यक्ति तेरे लिए कांटे बोता है तो भी तू उसके लिए फूल ही बोता रह। तुझे फूल ही प्राप्त होंगे और उसे त्रिशूल-कांटे ही मिलेंगे।
यह सत्य है कि दूसरों का अहित करने वाले स्वयं का ही अहित करते
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