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________________ अवबाध-१९ १८१ 'सद्भिरेव सहासीत, सद्भिः कुर्वीत संगतिम्। सद्भिर्विवादं मैत्री च, नासद्भिः किञ्चिदाचरेत् ।।' तुम सज्जनों के साथ बैठो, उनकी संगति करो तथा उनसे विवाद एवं मित्रता करो, पर दुर्जनों के साथ कुछ भी मत करो, उनसे सदा बचते रहो। दुर्जन व्यक्ति अपनी दुष्टता से कभी बाज नहीं आता। उसकी खलता का फल सबको भोगना पड़ता है। चाणक्यनीति में दुर्जन व्यक्ति की दुष्टता को बताते हुए कहा गया 'तक्षकस्य विषं दन्ते, मक्षिकायाः शिरोविषम् ।। वृश्चिकस्य विषं पच्छे, सर्वाङ्गे दर्जनो विषम् ।।' सांप के दान्त में ही विष होता है, मक्खी के शिर में ही विष होता है और बिच्छू की पूंछ में ही विष होता है, किन्तु दुर्जन व्यक्ति सारे अंगों से विषमय होता है। विषधारक जीव-जन्तु अपनी-अपनी एक-एक प्रवृत्ति से मनुष्य की घात करते हैं, पर दुर्जन व्यक्ति की प्रवृत्तिमात्र ही घातक होती है। इसलिए पंचतन्त्र में कहा गया 'स्पृशन्नपि गजो हन्ति, जिघ्रन्नपि भुजङ्गमः। पालयन्नपि भूपालः, प्रहसन्नपि दुर्जनः।।' हाथी स्पर्श करता हुआ भी मनुष्य को मार देता है, सांप सूंघता हुआ तथा राजा पालन करता हुआ भी मनुष्य को मार देता है, किन्तु दुर्जन व्यक्ति तो हंसता हुआ भी मनुष्य को मार देता है, क्योंकि उसके हास्य में दुष्टता होती है। इसलिए नीतिकार सत्य कहते हैं- 'निसर्गतोऽन्तर्मलिना ह्यसाधवः'-दुर्जन मनुष्य स्वभाव से ही मन के मैले होते हैं। दुर्जन व्यक्तियों का मन सदा कुटिलता से भरा रहता है। उनका लक्ष्य दूसरों के अहित करने में ही लगा रहता है। वे अपनी कुचेष्टाएं मच्छर के समान करते हैं, इसलिए संस्कृतकवि ने मच्छर से दुष्ट व्यक्ति की तुलना करते हुए कहा'प्राक् पादयोः पतति खादति पृष्ठमांसं, __कर्णे कलं किमपि रौति शनैर्विचित्रम्। छिद्रं निरूप्य सहसा प्रविशत्यशङ्कः, सर्वं खलस्य चरितं मशकः करोति।।' जैसे मच्छर पहले पैरों पर आक्रमण करता है, फिर वह पीठ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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