________________
अवबोध-१८
१७९
'वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या,
सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः। स हि भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला,
मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः?।।' राजसभा में उपस्थित संन्यासी ने राजा से कहा-राजन् ! तुम लक्ष्मी से सन्तुष्ट हो और हम वल्कल पहनकर संतोष का अनुभव करते हैं। तुम्हारे और हमारे संतोष में कोई अन्तर नहीं है। दरिद्र वह है जिसमें तृष्णा विशाल है। मन के संतुष्ट होने पर कौन धनवान् और कौन दरिद्र?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org