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सिन्दूरप्रकर इस प्रकार भारतीय साहित्य सन्तोष की महान् गुण-गाथाओं से भरा हआ है। शेखसादी ने सन्तोष को संबोधित करते हुए कहा था-ओ सन्तोष! तू मुझे ऐश्वर्यशाली बना दे! क्योंकि कोई ऐश्वर्य तुझ से बढ़कर नहीं है। कवि ने ठीक कहा
'गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन खान।
जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूलि समान।।' जब व्यक्ति के पास सन्तोषरूपी धन आ जाता है तब वह गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन-सभी धनों को धूलि के समान मानने लग जाता है। ___आचार्य सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत प्रकरण में लोभविजय के लिए सन्तोष को प्रधान साधन मानते हुए कहा है-जो मनुष्य सन्तोष को धारण करता है उसके सामने कल्पवृक्ष प्रकट हो जाता है, उसके घर में कामधेनु आ जाती है, उसके चिन्तामणि रत्न हस्तगत हो जाता है, निधि उसके समीप हो जाती है और जगत् उसके वशवर्ती हो जाता है तथा स्वर्ग और मोक्ष की संपदाएं उसके लिए सुलभ हो जाती हैं। अतः सन्तोष समस्त दोषरूपी अग्नि के उपशमन के लिए मेघ के समान है।
प्रतिपत्ति के रूप में प्रस्तुत प्रकरण को इस प्रकार भी प्रस्तुत किया जा सकता है• लोभ का मूल कारण है-व्यक्ति की असीमित कामनाएं और
इच्छाएं। इच्छाओं को अनिच्छा के द्वारा ही जीता जा सकता है। वह 'इच्छा-परिमाणवत' के द्वारा ही संभव है। जितना अधिक लाभ होता है, लोभ उतना ही आगे से आगे बढ़ता रहता है।
लोभ असन्तोष को बढ़ाता है। • लोभ को अलोभ से जीता जा सकता है। जैसे कि आचारांगसूत्र
में कहा गया-'लोभं अलोभेण दुगंछमाणे लद्धे कामे नाभिगाहइ।' लोभ-विजय का फलित है सन्तोष। उसकी प्राप्ति होने पर कौन धनवान् और कौन दरिद्र ? सब समान होते हैं। इसलिए सन्तोष सर्वोत्कृष्ट धन है। इस संदर्भ में कवि ने उचित ही कहा है
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