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________________ १७६ सिन्दूरप्रकर पर नियंत्रण पा सकोगे और अनिच्छा के द्वारा इच्छाओं को जीत सकोगे। लोभ भी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य को उत्तेजित करता है, असन्तोष की आग भड़काता है। लोभी व्यक्ति की प्रत्येक प्रवृत्ति धन के लाभ से गतिमान होती है। इसलिए पाश्चात्य निबन्धकार बेकन (Bacon) ने कहा था- 'लोभी मनुष्य ठीक प्रकार से यह नहीं कह सकता कि धन उसके अधिकार में है, जैसा कि धन यह कह सकता है कि वह लोभी उसके अधिकार में है।' क्योंकि धन का नशा मनुष्य को जड़मूढ बना देता है। उससे जकड़ा हुआ व्यक्ति परार्थ और संबन्धों को भी भुला देता है। धन की मादकता कैसी होती है, उसका उल्लेख करते हुए कवि कहता है 'कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। वा खाए बौरात है, या पाए बौराय।।' कनक दो अर्थों में प्रयुक्त होता है-सोना और धतूरा। धतूरे से सोने में सौ गुनी मादकता अधिक होती है। धतूरे को खाने पर मनुष्य नशे में मत्त हो जाता है और सोना प्राप्त होने पर मनुष्य उसके मद में उन्मत्तबावला बन जाता है। सब जगह धन की पूजा है। यदि किसी के पास धन है तो वहां व्यक्ति का आदर, सत्कार और आवभगत है। अन्यथा कोई किसी को नहीं पूछता। इसलिए सन्त तुलसीदास ने कहा दौलत से दौलत मिले, कर-कर लांबा हाथ। ___ तुलसीदास गरीब की, कोउ न पूछे बात।। गरीब व्यक्ति को कोई नहीं पूछता। जिनके पास धन-दौलत है उन्हीं से सारी बातें की जाती हैं, क्योंकि धन धन को अपनी ओर खींचता है। धन के लोभ में व्यक्ति अपने कर्तव्य को भी भूल जाता है, वह पथभ्रष्ट हो जाता है। इसी आशय से कवि तुलसीदास ने कहा _ 'दौलत की दो लात है, तुलसी निश्चय कीन्ह। आवत अन्धा करत है, जावत करे अधीन।।' जब मनुष्य को धन-संपत्ति की प्राप्ति होती है तब वह अन्धाविवेकशून्य बन जाता है। जब धन उसके पास से जाता है तब वह व्यक्ति को अपने अधीन बना लेता है, वह उसकी अधीनता से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए धन दोनों ओर से लात मारता है, आते समय भी और जाते समय भी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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