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अवबोध-१८
१७५ है, काश! मैं बादल होती। बादल कहता है-काश! मैं चिड़िया होता। नदी का एक किनारा कहता है--सम्पूर्ण सुख दूसरे किनारे पर है तो दूसरा किनारा कहता है-सारा सुख पहले किनारे पर है। इस प्रकार असन्तोष दोनों ओर है, सन्तोष कहीं भी नहीं है। इसी भावना को प्रकट करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं
'तारे ऊपर हैं, वे नीचे आना चाहते हैं
और पेड़ जो नीचे हैं, वे ऊपर जाना चाहते हैं
सन्तोष ऊपर भी नहीं, नीचे भी नहीं है।' जब तक चित्त में आकांक्षाओं तथा कामनाओं का ज्वार है तब तक व्यक्ति सन्तोष और तृप्ति का अनुभव नहीं कर सकता। इसलिए योगशास्त्र में कहा गया
'तृप्तो न पुत्रैः सगरः, कुचिकर्णो न गोधनैः।
न धान्यस्तिलकः श्रेष्ठी, न नन्दः कनकोत्करैः।।' चक्रवर्ती सगर साठ हजार पुत्रों को पाकर भी सन्तोष नहीं कर सका, कुचिकर्ण अत्यधिक गोधन से भी तृप्त नहीं हो सका, तिलक श्रेष्ठी को प्रचुर धान्यसंग्रह भी संतोष नहीं दे सका और नन्दराजा सोने के ढेरों से भी शान्ति नहीं पा सका।
यह है असीमित इच्छाओं और कामनाओं की अपूर्ति का परिणाम। ऋषिभाषित में कहा गया
'इच्छा बहुविहा लोये, जाए बद्धो किलिस्सति।
तम्हा इच्छामणिच्छाए जिणित्ता सुहमेधति।।' संसार में इच्छाएं अनेक प्रकार की हैं। उनसे बंध कर जीव बहुत क्लेश-दुःख पाता है, इसलिए इच्छा को अनिच्छा से जीतकर ही मनुष्य सुख पा सकता है। __अनिच्छा से इच्छाओं को कैसे जीता जाए, यह आज का अहं प्रश्न है। भगवान महावीर ने इसका समाधान देते हुए कहा- 'इच्छा लोभं न सेविज्जा' --साधक को इच्छा और लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए। इच्छाओं की विजय इच्छापरिमाणव्रत से ही संभव हो सकती है। जब भी मन में इच्छाएं उत्पन्न हों, मन को इच्छाओं के विरुद्ध मोड़ लो। इसी संदर्भ में पाश्चात्य विचारक हेल्वेटियस (Helvetius) ने कहा था-'इच्छाओं को शून्य करने के लिए तुम्हें मन को शून्य करना चाहिए।' तभी तुम इच्छाओं
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