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________________ १७४ सिन्दूरप्रकर है। इच्छा की प्यास न तो कभी बुझती है और न ही पूर्णतया सन्तुष्ट होती है। वह तो बिना पाल का सरोवर है। उसकी कोई सीमा नहीं होती। वह तो असीम है। प्रत्येक इच्छा की अपनी मांग होती है। किसी की मांग छोटी होती है तो किसी की मांग बड़ी। दोनों में बड़ा अन्तर होता है। पाश्चात्य विचारक काउली (Cowley) ने इस विषय में कहा था-'गरीबी कुछ चीजें मांगती है, विलासिता बहुत-सी चीजें चाहती हैं, किन्तु लोभप्रेरित इच्छा सब कुछ चाहती है।' उन इच्छाओं का कभी अन्त नहीं आता। जब तक मन में असन्तोष की आग है तब तक इच्छाओं का पार भी नहीं पाया जा सकता। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया 'कसिणं पि जो इमं लोयं पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। तेणावि से न संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया।।' धन-धान्य से परिपूर्ण यह समूचा लोक भी यदि किसी एक को दे दिया जाए तो भी वह उससे संतुष्ट नहीं होता, तृप्त नहीं होता, क्योंकि यह आत्मा दुष्णूर है-संतुष्ट होने वाली नहीं है। योगशास्त्र में कहा गया- 'असन्तोषवतः सौख्यं न शक्रस्य न चक्रिणः'असन्तोषी इन्द्र और चक्रवर्ती भी जब सुख नहीं पा सकते तो फिर मनुष्यों की बात ही क्या? __प्रत्येक मनुष्य को दूसरों की थाली में ही ज्यादा घी दिखता है। प्रत्येक की सोच भी यही रहती है कि दूसरा व्यक्ति मेरे से बहुत धनवान् है, सुखी है। वह दूसरों की सुख-सुविधाओं, ऐश्वर्य को देखकर मन ही मन कल्पना करता है कि काश! मैं भी उस जैसा बन जाऊं? यह महत्त्वाकांक्षा ही व्यक्ति में लोभ की चेतना को जगाती है। इस विषय में संस्कृतकवि ने ठीक ही कहा 'अधोऽधः पश्यतः कस्य, महिमा नो गरीयसी। उपर्युपरि पश्यन्तः, सर्व एव दरिद्रति।।' जब व्यक्ति अपने से नीचे के व्यक्ति को देखता है तो उसका बड़प्पन और अधिक बढ़ जाता है। जब वह अपने से ऊपर के व्यक्ति को देखता है तो उसे नीचे वाले सभी दरिद्र प्रतीत होते हैं। फिर वह अपने आपको ऊपर वाले व्यक्ति के समान बनाने का प्रयत्न करता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने असन्तोष के विषय में कहा था-'चिड़िया कहती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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