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१८. अवबोध
मनुष्य की प्रवृत्ति अनेक प्रेरणाओं और भावनात्मक उत्तेजनाओं से प्रेरित होकर चलती है। उनमें सबसे बड़ी प्रेरणा है लोभ की। लोभ से प्रेरित होकर मनुष्य क्या कुछ नहीं करता? वह आवश्यकता से अधिक अर्थ का संग्रह करता है, अनैतिक उपायों को काम में लेता है, क्रूरतापूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होता है तथा परार्थ को गौणकर स्वार्थ की बात सोचता है। इसलिए गौतमकुलक में कहा गया- ' - 'लुद्धा नरा अत्थपरा हवन्ति' - लोभी मनुष्य अर्थपरायण होते हैं। उनके जीवन की दौड़ सदा धन के पीछे लगी रहती है। जब अर्थ ही सब कुछ होता है तब व्यक्ति में कर्तव्यअकर्तव्य, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय आदि का विवेक भी लुप्त हो जाता है। मनुष्य में सबसे अधिक लोभ की चेतना काम करती है। लोभ का परिवार इतना अधिक बड़ा है कि उसमें क्रोध, मान, माया आदि का भी समावेश हो जाता है। इसलिए दसवैकालिकसूत्र में कहा गया- ' - 'लोहो सव्वविणासणो' - लोभ सब गुणों-प्रीति, विनय और मैत्री का नाश करने वाला है। यदि धन का बंटवारा ठीक प्रकार से नहीं हुआ तो पुत्र पिता से रुष्ट हो जाता है, यह प्रीति का नाश है। किसी भाई को पिता के द्वारा अधिक धन दिए जाने पर दूसरे भाई का अंटसंट बकना विनय का नाश है। पुत्र के द्वारा कपटपूर्वक धन ग्रहण करने पर उसे स्वीकार नहीं करना मित्रभाव का नाश है। इस प्रकार लोभ की यह सर्वगुणनाशक प्रवृत्ति है । सभी कषाय एक लोभ की परिधि में सिमट जाते हैं। यदि लोभ प्रबल है तो क्रोध ज्यादा सताएगा, अहंकार ज्यादा हावी होगा और माया का जाल विस्तृत होगा। वे सब लोभ-प्रवृत्ति की प्रेरणाएं हैं।
लोभ का उद्गम-स्थल है - अपनी ही असीमित- विशाल इच्छा तथा महत्त्वाकांक्षा । व्यक्ति को लोभरूपी भूत तभी लगता है जब वह अनगिन कामनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं से ग्रस्त होता है। कभी-कभी तो व्यक्ति अपनी इच्छाओं तथा महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने में इतना अधिक पागल हो जाता है कि उसके सामने जीवन का मूल्य भी गौण हो जात
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लोभत्याग प्रकरण
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