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सिन्दूरप्रकर
है। वे कहते हैं---माया कल्याण को जन्म देने के लिए बन्ध्या स्त्री के समान है, सत्यरूपी सूर्य को अस्त करने के लिए सन्ध्या के समान है, कुगतिरूपी युवती का वरण करने के लिए वरमाला के समान है, मोहरूपी हाथी के लिए शाला के समान है, उपशमरूपी कमलों के विनाश के लिए अत्यधिक हिम के समान है, अपयश की राजधानी के समान है तथा सैंकड़ों कष्टों को सहयोग देने वाली है। ___ माया की परिणति भविष्य में वैसे ही उपद्रव करने वाली होती है जैसे कि अपथ्यकारक भोजन रोग को उत्पन्न करने वाला होता है। वह अविश्वास की जननी है तथा उससे महामोहनीय कर्म का बन्ध होता है, इसलिए माया को दूर से ही छोड़ देना चाहिए।
प्रस्तुत प्रकरण की फलश्रुति के रूप में कुछेक बिन्दु इस प्रकार हैं• माया अविश्वास की जननी है, भय का स्रोत है। • माया को छोड़ने का अर्थ है-ऋजुता-सरलता का विकास, अभय
का विकास। ऋजुता से काया, भाव और भाषा की सरलता प्राप्त होती है
और कथनी-करनी की समानता उपलब्ध होती है। • माया एक शल्य है। निःशल्य व्यक्ति ही व्रतों की साधना और धर्म
की आराधना कर सकता है। वह ऋजुता से ही संभव है। ऋजुता-सरलता की साधना के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है। बिना अभ्यास के ऋजुता का भाव पुष्ट नहीं हो सकता। अतः ऋजुता का अभ्यासी पुरुष बार-बार ऋजुता की अनुप्रेक्षा करे। वह कायोत्सर्ग की स्थिति में अपने आपको सुझाव देते हुए इस शब्दावली का नौ बार उच्चारण करें-'ऋजुता-सरलता का भाव पुष्ट हो रहा है, वक्रता का भाव क्षीण हो रहा है।' फिर इसका मन ही मन नौ बार जप भी करे।
इस अनुप्रेक्षा से धीरे-धीरे वक्रता का हास होकर सरलता का विकास होता है। यह माया को कम करने का एक सक्षम प्रयोग है।
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