________________
अवबोध-१७
१७१
'सरलजनों को सरल गति, वक्रजनों की वक्र।
सीधा जाता तीर ज्यों, चक्कर खाता चक्र।।' सरल हृदय मायारहित होता है। वह सबको प्रिय लगता है। इसलिए बच्चों की प्रियता का हेतु उनकी सहजता, ऋजुता और सरलता ही होती है। जहां सरलता होती है वहां परमात्मा का निवास होता है, सद्गति और मोक्ष का वास होता है। सरल पुरुष अपने लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त कर लेता है।
कहीं-कहीं नीतिकारों ने व्यक्ति को अति सरल बनने का भी निषेध किया है। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति सरलतम होता है उसका दूसरे-दूसरे लोग दुरुपयोग करते हैं, उनके हितों की अनदेखी करते हैं। इसी आशय से चाणक्यनीति में कहा गया
'नात्यन्तसरलैर्भाव्यं, गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र, कब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः।।' मनुष्य को अति सरल नहीं होना चाहिए। उस अति सरलता का परिणाम तुम वन में जाकर देखो। वहां सीधे-सरल वृक्ष काटे जाते हैं और बांके-टेढे वृक्ष खड़े रह जाते हैं।
यह सत्य लौकिक जीवन में खरा उतर सकता है और अति सरल मनुष्य को कभी-कभी मुसीबत में भी डाल सकता है, पर धर्म और मोक्ष की आराधना के लिए यह सत्य यथार्थता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। वहां मनुष्य को अति सरल होना अत्यन्त अनिवार्य होता है। उसके बिना सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी सत्य को उलटकर ऐसे भी कहा जा सकता है कि सीधी लकड़ी पर राष्ट्रध्वज लहराया जाता है और टेढ़ी-बांकी लकड़ियों को चूल्हे में जलाया जाता है।
जिस प्रकार शुद्ध साध्य की प्राप्ति कभी अशुद्ध साधनों से नहीं हो सकती उसी प्रकार मायादि दोषों से उच्च लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। वह तो सरलता से ही संभव है। आगमो में यत्र-तत्र माया को छोड़ने का निर्देश किया गया है-- 'मायं च वज्जए सया'-माया का सदा वर्जन करना चाहिए। 'मायं चज्जवभावेण'-माया-कपट को सरलभाव से जीतो। 'मायामोसं विवज्जए-' मायामृषा (कपट सहित असत्य) का वर्जन करो।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत प्रकरण में मायाजन्य दोषों का वर्णन करते हुए उनको दूर से छोड़ने का निर्देश दिया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org