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सिन्दूरप्रकर में तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया था, किन्तु तपस्या में थोड़ीसी माया के कारण उनको स्त्रीरूप में जन्म लेना पड़ा।
सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट है- 'जे इह मायादि मिज्जई, आगंता गब्भादणंतसी।' जो साधक मनुष्य-जीवन में माया में फंस जाता है, वह अनन्त बार गर्भ के दुःखों को प्राप्त होता है। प्रस्तुत सूत्र (सूत्रकृतांग) में अन्यत्र कहा गया-जो मायावी पुरुष माया का आचरण कर उसकी आलोचना नहीं करता, उसका प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, विवर्तन, विशोधन नहीं करता तथा पुनः उसे न करने के लिए अभ्युत्थित नहीं होता और न यथायोग्य तपःकर्मरूप प्रायश्चित्त को स्वीकार करता है वह या तो मृत्यु के पश्चात् इस लोक में साधारण कुल में जन्म लेता है या वह परलोक में दुर्गति में उत्पन्न होता है।
जहां माया होती है वहां व्यक्ति को सदैव भय बना रहता है और उस स्थिति में सहसा किसी का विश्वास भी नहीं किया जा सकता। माया एक शल्य है। उसके रहते हुए व्रत या धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। उमास्वाति ने इसी आशय से लिखा था-'निःशल्यो व्रती'-जो शल्यरहित होता है वही व्यक्ति व्रती या धार्मिक हो सकता है।
इसलिए भारतीय संस्कृति में निष्कपटता, सरलता, ऋजुता का सदा से मूल्य रहा। भगवान महावीर ने कहा- 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई'धर्म उसमें ठहरता है, जो शुद्ध होता है। 'सोही उज्जुयभूयस्स'-शुद्धि उसे प्राप्त होती है जो ऋजुभूत होता है। शुद्धि और ऋजुता का परस्पर गहरा संबंध है। महात्मा ईसा ने इस प्रसंग में कहा था-जिनका हृदय बालकों की तरह पवित्र और स्वच्छ होता है, जो बालकों की भांति सरल और निष्कपट होते हैं वे व्यक्ति ही ईश्वरीय राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।
गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-भंते! ऋजुता-सरलता से जीव क्या प्राप्त करता है? भगवान ने कहा-ऋजता से वह काया की सरलता, भाव की सरलता, भाषा की सरलता और कथनी-करनी की समानता को प्राप्त होता है।
जो व्यक्ति सरल होता है वह सबको सरलता से देखता है। उसकी गति, मति, भावना तथा आचरण सब सरलतायुक्त होते हैं। इसलिए कविमानस ने कहा
ताल होता है। सो
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