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________________ अवबोध-१७ १६९ में एक बार भी धोखा खा जाता है वह पुनः उस माया में फंसने का प्रयास नहीं करता और वह बड़ी ही सावधानी से संभल-संभल कर पग रखता है। इसलिए कवि ने सत्य ही कहा है 'फेर न है है कपट सों, जो कीजे व्यवहार। जैसे हांडी काठ की, चढे न दूजी बार।।' जिस प्रकार काठ की हांडी अग्नि पर एक बार चढ़ने के बाद जलकर नष्ट हो जाती है, दूसरी बार वह अग्नि पर नहीं चढ़ सकती, वैसे ही कपट की प्रवृत्ति एक बार ही चल पाती है। उसे जान लेने पर मनुष्य दोबारा उस प्रवृत्ति से धोखा नहीं खाता। शुकबोध में भी माया के स्वरूप को दर्शाते हुए कहा गया है ___'मायाकरण्डी नरकस्य हण्डी। तपोविखण्डी सुकृतस्य भण्डी।।' माया एक पिटारी है, नरक की हांडी है, वह तप को खंडित करने वाली और सुकृत को नष्ट करने वाली है। - इस प्रकार माया अनेक दोषों की जनक है, फिर भी व्यक्ति उसे अपनाता है और मायावी बनकर मायाचार करता है। उसकी प्रकृति ही कुछ ऐसी होती है कि वह सब चीजों को कुटिलता से देखता है। उसकी मति, गति, भावना तथा आचरण सब कुछ कुटिलता से परिपूर्ण होते हैं। जैन आगमों तथा अन्यान्य ग्रन्थों में भी मायाजन्य दोषों का विस्तार से वर्णन हुआ है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- 'माया गईपडिग्घाओ'–माया सुगति का नाश करती है। दसवैकालिकसूत्र में बताया गया- 'माया मित्ताणि नासेई'-माया मैत्री का नाश करती है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है- 'माया तैर्यग्योनस्य'--माया से तिर्यंचयोनि मिलती है। स्थानांगसूत्र में तिर्यंच गति में जाने के चार कारणों का उल्लेख है। उनमें एक कारण माया भी है। इसी प्रकार स्थानांगसूत्र में माया को वंशीभूत, मेषविषाण, गोमूत्रिका तथा अवलेखिका के समान माना गया है। मेषविषाण के समान माया का आचरण करने वाला जीव मरकर तिर्यंच गति में उत्पन्न होता है। विवेकविलास में कहा गया- 'नृणां स्त्रीत्वप्रदा माया'-माया पुरुष को स्त्रीत्व देने वाली होती है। उसका उदाहरण है--भगवान मल्लिनाथ। ज्ञातासूत्र में बताया गया है कि धर्म के विषय में की हुई सूक्ष्म माया भी अनर्थ के लिए होती है, जैसे कि भगवान मल्लिनाथ ने महाबल के भव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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