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सिन्दूरप्रकर
विषय में कहा था- 'तमाम छलकपटों में सबसे निकृष्ट छलकपट है - अपने आपको ठगना।' संसार में कहावत है कि दियासलाई दूसरों को जलाने की प्रवृत्ति करती है, किन्तु पहले उसी का ही मुंह जलता है । इसी आशय को प्रकट करते हुए उपदेशप्रासाद में कहा गया- 'भुवनं वञ्चयमाना, वञ्चयन्ति स्वमेव हि ।' जगत् को ठगते हुए कपटी पुरुष वास्तव में अपने आपको ही ठगते हैं ।
धूर्त अथवा कपटी पुरुष सहसा पहचाने नहीं जाते। कभी-कभी मनुष्य अपने अज्ञान के कारण धूर्त पुरुषों को भी सज्जन व्यक्तियों की कोटि में गिन लेता है । नीतिकारों ने धूर्त व्यक्ति के लक्षणों को बताते हुए लिखा है
'मुखं पद्मदलाकारं वाचा चन्दनशीतला । हृदयं क्रोधसंयुक्तं त्रिविधं धूर्तलक्षणम् ।।'
धूर्त व्यक्ति का मुख कमलपत्र के समान विकस्वर होता है, वाणी चन्दन के समान शीतल होती है और हृदय क्रोध से भरा हुआ होता हैये तीन लक्षण उसमें पाए जाते हैं ।
इन्हीं लक्षणों को प्रकारान्तर से ऐसे भी देखा जा सकता है - 'ठाठ तिलक और मधुरी बाणी, दगाबाज की यही निशानी । '
माया का संसार बड़ा ही विचित्र और विशाल होता है। एक माया को छिपाने के लिए मायावी को कितनी कितनी किलाबन्दी करनी पड़ती है, कितने मंसूबों को बांधना होता है, कितना असत्य का सहारा लेना पड़ता है तब भी माया किसी न किसी रूप में अथवा कभी न कभी प्रकट हो ही जाती है। माया का स्वरूप उन तम्बों के समान है जिनको दबाकर नहीं रखा जा सकता। इस प्रसंग में आचार्य भिक्षु ने कहा था
'तस्कर तोड्या तूंबड़ा दाबै पाणी मांय ।
बो दाबै बै ऊबसै, करनी छानी नांय । । '
किसी तस्कर ने तूम्बों को छिपाने के लिए जलाशय का आश्रय लिया। उसने दोनों हाथों से कुछेक तूम्बों को जल में छिपाने का प्रयास किया, किन्तु अन्य तुम्बे जल के ऊपर आकर तैरने लगे । पुनः उसने ऊपर आए तम्बों को जल में छिपाने का प्रयास किया तब हाथ से दबे हुए तुम्बे पुनः ऊपर आकर जल पर तैरने लगे, तूम्बे छिपे नहीं रह सके। आखिर माया माया ही होती है । वह तूम्बों की भांति कभी छिप नहीं सकती। वह एक न एक दिन अवश्य ही प्रकट होती है । जो व्यक्ति माया के चक्कर
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