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अवबाध-१७
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भीतर में मन से काले कपटी होते हैं वे किसी का भला नहीं कर सकते। उनसे तो वे लोग अच्छे होते हैं जो अपने को कौए के समान बाहर और भीतर से एक समान रखते हैं, क्योंकि कौआ बाहर से भी काला होता है और भीतर से भी धूर्त और काला होता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सामाजिक-बन्धन में भी जीता है और व्यवहार के स्तर पर भी जीता है। सामाजिकता के नाते व्यक्ति के हित एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। उन्हें गौण नहीं किया जा सकता। फिर भी व्यक्ति में स्वार्थ की चेतना इतनी अधिक प्रबल होती है कि वहां दूसरों के हित गौण हो जाते हैं और स्वयं का स्वार्थ प्रधान बन जाता है। वहां माया भीतर के दुर्ग में छिपी रहती है और मायाचार अपना काम करता है। मायाचार या कपटाई करने वाला अपने आपको इतने सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है कि सामने वाला उसकी बातों को सुनकर हतप्रभ हो जाता है और उसके कार्यकलापों से ठगा भी जाता है। यह एक प्रकार का ढोंग है। हर व्यक्ति उस कला में निपुण नहीं होता, किन्तु ठगाई करने वाला उस कला में अवश्य निपुण होता है। महान् दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने इस विषय में कहा था- 'जो गुण स्वयं में नहीं होते उसे दिखाने की कोशिश करना ही ढोंग है।' __ सफेद कमीज के नीचे गन्दी बनियान हो सकती है। सीता, राजीमती आदि महासतियों के गीत गाने वालों के कमरे में कुलटाओं के चित्र हो सकते हैं। आगम, पिटक, गीता, उपनिषद् आदि रखने वालों के पुस्तकालय में अश्लील साहित्य मिल सकता है। सुख का स्वांग करने वाले परम दुःखी हो सकते हैं, इसलिए बाहर के रूप को देखकर अन्दर के गुणों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
यह एक सचाई है कि किसी के असली रूप को पहचानना भी कठिन होता है। हर व्यक्ति असलियत को छिपाकर कृत्रिमता का बाना पहन कर ही दुनिया के रंगमंच पर अभिनय करता है और वह अपनी प्रतीति भी उसी रूप में करवाना चाहता है, जिससे हर कोई उसे असली रूप में जान सके। यही है माया, प्रवचंना, ठगाई, धोखाधड़ी तथा पाखंड। ठगने वाला अथवा धोखा देने वाला दूसरों को ठगकर या धोखा देकर इसलिए प्रसन्न होता है कि मैंने कितनी चतुराई से दूसरों को ठगा है। दूसरा ठगा जाता है या नहीं अथवा किससे ठगा जाता है, पर ठगने वाला तो निश्चित ही स्वयं में ठगा जाता है। पाश्चात्य विचारक जी.बैली (G. Bailey) ने इस
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