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मायात्याग प्रकरण
१७. अवबोध
रामायण का प्रसंग है। राम, लक्ष्मण और सीता वन- प्रवास में दण्डकारण्य की ओर जा रहे थे। मार्ग में पम्पा सरोवर को देखकर उनके पैर रुक गए। राम ने सरोवर में एक बगुले को देखकर लक्ष्मण को संबोधित करते हुए कहा
'पश्य लक्ष्मण ! पस्पायां बकः परमधार्मिकः । मन्दं मन्दं पदं धत्ते जीवानां वधशङ्कया । । '
लक्ष्मण! तुम पम्पा सरोवर में इस बगुले को देखो। यह परम धार्मिक है। यह इस आशंका से धीरे-धीरे पैर रख रहा है कि कहीं मेरे से जीवों का वध न हो जाए।
राम के ये स्वर सरोवर की मछलियों के कानों में पड़े। उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने अपनी व्यथा प्रकट करते हुए राम से कहा'बकः किं वर्ण्यते राम! येनाहं निष्कुलीकृतः । सहचारी विजानीयात् चरित्रं सहचारिणाम् ।।'
राम! आप इस बगुले को परम धार्मिक बता रहे हैं। इसने तो हमारे कुल का ही नाश कर दिया। साथी के चरित्र को साथ में रहने वाला ही जान सकला है, उसे आप नहीं जान सकते।
यह बगुलावृत्ति आज समाज में चारों ओर फैली हुई है। आदमी आदमी को धोखा दे रहा है। व्यक्ति बाहर से अपने आपको कुछ दिखाता है और भीतर में उसका रूप कोई दूसरा होता है। बाहर से वह राम भी बन सकता है, भक्त प्रह्लाद, मीरा, सूरदास के तुल्य भी हो सकता है, किन्तु आचरण में उसका रूप रावण, शूर्पणखां से भी निकृष्टतम हो जाता है। यह द्विरूपता ही व्यक्ति को धोखा देने वाली होती है। इसलिए नीतिकार कहता है
'तन उजला मन सांवला, बगुला कपटी भेख । यां सूं तो कागा भला, बाहर भीतर एक । । '
जो लोग बाहर से बगुले के समान स्वयं को सफेद दिखाते हैं और
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