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________________ अवबोध- १६ • दारुस्तम्भ - यह मान काठ के खम्भे के समान-' - 'प्रत्याख्यानावरण' होता है। इसमें प्रवर्तमान जीव मरकर मनुष्यगति में उत्पन्न होता है । तिनिशलतास्तम्भ - यह मान सीसमजाति के वृक्ष की लता (लकड़ी) के खम्भे के समान - 'संज्वलन' होता है। इसमें प्रवर्तमान जीव मरकर देवगति में उत्पन्न होता है। अतः ज्ञानीपुरुषों ने सुखी बनने का उपाय 'अभिमानं सुरापानं, गौरवं · प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा, त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत्।' अभिमान मद्यपान के समान है। गौरव घोर नरक के समान है। प्रतिष्ठा सूअर की विष्ठा के सदृश है। जो व्यक्ति इन तीनों को छोड़ता है वही सुखी बन सकता है। • वास्तव में सुखी बनने का रास्ता है - अभिमान का विसर्जन । कृतिकार सूरीश्वर ने उस जीवन को संजीवनी औषध के समान माना है जो विनय के गुण से भावित होता है, जिसमें मार्दवरूपी अमृतरस छलकता है, इसलिए अहंकार को जीतने का एकमात्र उपाय हैमार्दव-न - नम्रता । आगमों में भी कहा गया- 'माणं मद्दवया जिणे ।' महान् दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने कहा था- 'नम्रता वह कवच है जो कभी नहीं टूटता।' जिसने अहंकार की सचाई को समझ लिया, उसके स्वरूप को समझ लिया, आकांक्षाओं में बहते हुए अपने आपको देख लिया, वही व्यक्ति विनम्रता की साधना कर सकता है। प्रस्तुत विषय की फलश्रुति के रूप में कुछेक बिन्दुओं को इस प्रकार रखा जा सकता है अहंकार विजय का व्यावहारिक परिणाम है- विनम्रता । निरंहकारी व्यक्ति सत्य के प्रति, दूसरों के प्रति और सबसे अधिक अपने प्रति विनम्र होता है। अहंकार विजय का आध्यात्मिक परिणाम है- सतत अपने अस्तित्व की अनुभूति और स्मृति । अहंकार के साथ जुड़ा है- क्रोध, लोभ और आकांक्षा । • १६५ वरण' होता है। इसमें प्रवर्तमान जीव मरकर तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होता है। • • • बताते हुए कहा हैघोर - रौरवम् । . Jain Education International अहंकार हिंसाबुद्धि के धूम्र से व्याप्त है। अहंकार में ज्ञान-औदार्य आदि गुणों का विनाश हो जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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