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सिन्दूरप्रकर अहंकार की चेतना क्या कुछ नहीं करती ? वह अनेक अनर्थों को उत्पन्न करती है। जैसा कि दसवैकालिकसूत्र में कहा गया-'माणो विणयनासणो' –मान विनय को नष्ट करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया- 'माणेण अहमागई'- मान से मनुष्य अधोगति को प्राप्त होता है। कथासरित् सागर में समझाया गया- 'ज्ञानमार्गे ह्यहंकारः परिघो दुरतिक्रमः'-अहंकार ज्ञानमार्ग में दुर्लंघ्य अर्गला के समान है। ___ग्रन्थकार आचार्य सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत विषय के प्रतिपाद्य में अहंकारजन्य अनेक अनर्थों का वर्णन किया है। वे लिखते हैं-अहंकार से अन्धा बना हुआ व्यक्ति मदोन्मत्त हाथी के समान है। वह उपशमरूपी आलान, निर्मल बुद्धिरूपी रज्जु, दुर्वचनरूपी धूलिसमूह, आगमरूपी अंकुश की अवमानना करता हुआ, स्वेच्छा से घूमता हुआ, विनयरूपी न्यायमार्ग का विध्वंस करता हुआ क्या-क्या अनर्थ नहीं करता? जिस प्रकार नदियों का उद्गमस्थल पर्वत है वैसे ही आपदारूपी नदियां अहंकाररूपी पर्वत से निकलती हैं। ___ अहंकारी व्यक्ति उस थोथे चने के समान है जिसमें सार कम होता है और बजता ज्यादा है। वह ऐसी अधजल गगरी के समान है जो सदा छलकता ही रहता है। ऐसे व्यक्ति के लिए संस्कृतकवि ने कहा
'सम्पूर्णकम्भो न करोति शब्दम? घटो घोषमपैति नूनम्। विद्वान् कुलीनो न करोति गर्वं जल्पन्ति मूढास्तु गुणैर्विहीनाः।।'
सम्पूर्ण भरा हुआ घड़ा कभी नहीं छलकता। आधा भरा हुआ घड़ा ही अधिक छलकता है। जो व्यक्ति विद्वान् एवं कुलीन होते हैं वे कभी गर्व नहीं करते, गुणविहीन मूढ व्यक्ति ही अधिक गर्व करते हैं।
प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर ने अभिमानी व्यक्ति के स्वभाव का विश्लेषण करते हए कहा-'अभिमानी व्यक्ति अपनी विनम्रता अथवा योग्यताओं का स्वयं बखान करता है। इसका अर्थ है कि वह अपनी विनम्रता को घायल करता है और अपनी योग्यताओं की असंदिग्धताओं को अशुद्ध-अपवित्र बनाता है।'
जैन आगम स्थानांगसूत्र में मान के स्वरूप को चार स्तम्भों के द्वारा समझाया गया है. शैलस्तम्भ- यह मान पत्थर के खम्भे के समान–'अनन्तानुबन्धी
होता है। इसमें प्रवर्तमान जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता है। • अस्थिस्तम्भ-यह मान हाड के खम्भे के समान–'अप्रत्याख्याना
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