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अवबोध-१६
१६३ करके सोती हूँ। यह आकाश मेरे पैरों के कारण ही ठहरा हुआ है। धूआं सोचता है कि मैं अग्निवंश का हूं, इसलिए मुझे ऊपर जाने का अधिकार है। राख सोचती है कि मैं भी अग्निवंश की हूं, मुझे भी पृथ्वी से मिलने का अधिकार है। ऐसे व्यर्थ का अभिमान पालने वाले व्यक्ति इस संसार में बहुत मिल जाएंगे। अभिमान के भी कई प्रकार हैं। कुछ लोग अपने रूप-ऐश्वर्य में खोए हुए हैं। उनका मानना है कि हम जितने सुन्दर, ऐश्वर्यशाली हैं शायद उतने स्वर्ग के इन्द्र-इन्द्राणी भी हैं या नहीं?
कुछ व्यक्ति जाति-कुल-बल के मद में अहंकारी बने हुए हैं। वे जातिकुल के आधार पर दूसरों को नीचा मानते हैं, दूसरों के कुल की अवमानना करते हैं। अपने बल के अहं से वे दूसरों को तिरस्कृत और झुकाने का प्रयत्न करते हैं। कुछ व्यक्तियों को अपने तप, लाभ और श्रुत का गर्व होता है। मैं तपस्वी हूं। मेरे जैसा श्रुतज्ञ कौन है ? मैं पंडित हूं, शास्त्री हूं, बुद्धिमान हूं। मैं अपनी बुद्धिमत्ता से दुनिया को भी जीत सकता हूँ। ये मद के आठ स्थान प्रतिपल मनुष्य को दिग्मूढ बना रहे हैं। योगशास्त्र में कहा गया है
__ 'जाति-लाभ-कलैश्वर्य-बल-रूप-तपः-श्रुतैः।
कुर्वन् मदं पुनस्तानि, हीनानि लभते जनः।।' जाति-लाभ-कुल-ऐश्वर्य-बल-रूप आदि का मद करता हुआ जीव भवान्तर में हीन जाति आदि को प्राप्त होता है। ___ अहंकार की मार से विवश बना हुआ शिष्य गुरु की सन्निधि में पहुंचा और पूछा-भंते! मैं परमात्मा को प्राप्त करना चाहता हूँ। क्या उसके लिए कोई उपाय है? गुरु ने उसे समाहित करते हुए कहा-तुम अपने से 'मैं' को शून्य कर लो या अपने को पूर्ण कर लो, तुम्हें परमात्मा मिल जाएगा। शिष्य की समस्या का समाधान हो गया। ____ 'मैं' को शून्य करने का अर्थ है-स्वयं को अहंकार से सर्वथा मुक्त कर देना। अपने को पूर्ण करने का अर्थ है-वैसी अर्हता को पा लेना, जहां अहंकार और ममकार का द्वन्द्व ही समाप्त हो जाए। गोस्वामी तुलसीदास ने इस संदर्भ में ठीक ही कहा
_ 'अहंकार की अगनि में, दहत सकल संसार।
तुलसी बचै संतजन, केवल शान्ति-आधार।।' अहंकार एक अग्नि है। उसमें सारा संसार जल रहा है। केवल सन्तपुरुष ही उससे बचे हुए हैं, क्योंकि उनका आधार शान्ति है।
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