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________________ १६२ सिन्दूरप्रकर में कहा था-'अभिमान से आदमी फूल सकता है, पर वह फैल नहीं सकता।' जब आदमी में अहं की हवा भरती है तो वह फुटबाल की भांति निरन्तर उछलता रहता है, पृथ्वी पर टिक नहीं सकता। वह अपने अहंभाव के कारण अपने सिवा दूसरों को देख नहीं सकता। वह मानान्ध बन जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा- 'लुप्यते मानतः पुंसां विवेकामललोचनम्।' अभिमान में मनुष्य का विवेक-नेत्र लुप्त हो जाता है। संत तुलसीदास ने मानत्याग की दुर्लभता के विषय मे कहा था 'कंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। __ मान बडाई ईर्ष्या 'तुलसी' दुर्लभ एह।।' व्यक्ति के लिए कंचन और स्त्री का छोड़ना सहज हो सकता है, किन्तु मान-बडप्पन और ईर्ष्या को छोड़ना सरल नहीं है। बाहुबलि भरत के अनुज और भगवान ऋषभ के पुत्र थे। महाराज भरत से युद्ध में विजित होने पर वे साधना के लिए जंगलों में चले गए। वे अपने पिता आदिनाथ के पास इस अहं के कारण नहीं गए कि उन्हें पूर्वप्रव्रजित अपने छोटे भाइयों को वन्दना करनी होगी। एक वर्ष तक वे कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित रहे, फिर भी उन्हें कैवल्य की प्राप्ति नहीं हुई। अन्त में उनकी भगिनीद्वय ब्राह्मी-सुन्दरी ने उन्हें प्रतिबोध देते हुए कहाबन्धो! आप अहंकार के गजराज से नीचे उतरें। तत्काल बाहुबलि संभलें। उन्हें अपनी अस्मिता का अहसास हुआ। ज्योंही उन्होंने वन्दनार्थ जाने के लिए अपने कदम आगे बढ़ाए त्यों ही उनके अहंकार का वलय टूट गया। वे केवली बन गए। जब व्यक्ति में महत्त्वाकांक्षा होती है, बडप्पन की भूख सताती है, आकांक्षाओं की तीव्रता जागती है तब व्यक्ति का अहंकार भी आसमान को छूने लग जाता है। मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी बहुधा फरमाया करते थे-हमारा यह जीव अनन्त बार बेर की गुठली बनकर कितनी बार पैरों के तले रौंदा गया है। हमें भिक्षा के लिए भी जब हाथ पसारना पड़ता है, घर-घर घूमना पड़ता है तब हम किस बात का गर्व करें? अभिमान के नशे में कइयों का यही चिन्तन रहता है कि यह दुनिया मेरे ही बलबूते पर चल रही है। यदि मैं न होता तो यह संसार ही उजड़ जाता। यह व्यर्थ का अभिमान व्यक्ति के अज्ञान और दिग्मूढता का परिणाम है। संभव है कि मुर्गा सोचता हो कि प्रतिदिन का सूर्य मेरी बांग सुनने के लिए उदित होता है। टिटिहरी सोचती है कि मैं पैरों को ऊंचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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