________________
मानत्याग प्रकरण
१६.अवबोध
आज का मनुष्य जीवन के उस रथ में आसीन है जिसमें दो अश्व जुते हुए हैं। एक अश्व है अहंकार का दूसरा अश्व है क्रोध का। दोनों मिलकर उस जीवनरथ को चला रहे हैं अथवा व्यक्ति मानरूपी हाथी के हौदे पर चढा हुआ है। उसका अंकुश क्रोधरूपी महावत के हाथ में है। अहंकार और क्रोध-दोनों का प्रभुत्व मनुष्य पर है। प्रश्न होता है कि अहंकार क्रोध को चला रहा है अथवा क्रोध अहंकार को। दोनों में प्रबल कौन है, कौन किसका संचालक है? समाधान दिया गया-अहंकार क्रोध का संचालक है। यदि अहंकार नहीं होता तो क्रोध का अस्तित्व भी नहीं होता। क्रोध अहंकार के द्वारा संचालित है, प्रेरित है। उसकी उत्पत्ति भी उस अहंकार के साथ जुड़ी हुई है, जिसके गर्भ में आकांक्षा और लोभ है। वह अहंकार कभी क्रोध उत्पन्न नहीं करता, जो मात्र अस्तित्व का बोध कराने वाला होता है।
'अस्तित्ववाचक अहं' मनुष्य का ऐसा आईना है जो व्यक्ति की पहचान कराता है। वास्तव में अहं के बिना किसी की पहचान नहीं हो सकती। किसी से पूछा जाए कि तुम कौन हो? उत्तर होगा-मैं हूँ। कौन बोल रहा है? मैं बोल रहा हूँ। मैं का तात्पर्य ही है-अस्तित्व का बोध। अपने अस्तित्व की अभिव्यक्ति देने के लिए व्यक्ति ने अहंशब्द का चुनाव किया। अहंशब्द संस्कृतनिष्ठ है। उसका विस्तार है अहंकार। जब अहं से अहंकार बनता है तब उसके साथ अनेक दोषों का मिश्रण हो जाता है। अहंकारी व्यक्ति अहं की भाषा में सोचता है कि जो मेरी तरह सोचे वह बुद्धिमान्
और जिसके विचार मेरे विचारों से न मिलें वह मूर्ख होता है। जिस पर मैं चलूं दूसरे सभी मेरा अनुकरण करें, वही मेरा आदर्श है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया- 'अन्नं जणं पस्सति बिंबभूयं' --अभिमानी व्यक्ति अपने अहंकार में चूर होकर दूसरों को परछाईं के समान तुच्छ मानता है। उसके लिए दूसरों को छोटा मानना जितना आसान है, उतना अपने को छोटा समझना कठिन है। प्रखर चिंतक रस्किन ने इसी सन्दर्भ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org