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________________ १६० सिन्दूरप्रकर सहनशीलता की वृद्धि तथा प्रसन्नता का प्रकटीकरण। अतः साधक आचारांग के इस सूक्त को पुनः पुनः हृदयंगम करे'कसाए पयणुए किच्चे-हम कषाय को कृश करें, इसलिए करें कि क्रोध मनुष्य का शत्रु है, क्योंकि वह'वैरं विवर्धयति सख्यमपाकरोति, रूपं विरूपयति निन्द्यमतिं तनोति। दौर्भाग्यमानयति शातयते च कीर्ति, रोषोऽत्र रोषसदृशो नहि शत्रुरस्ति।।' । इस जगत् में क्रोध वैर बढ़ाता है, मित्रता को मिटाता है, रूप को कुरूप बनाता है, निन्दनीय बुद्धि बढ़ाता है, दौर्भाग्य लाता है और कीर्ति को नष्ट करता है, इसलिए क्रोध जैसा कोई शत्रु नहीं है। ___ जब व्यक्ति क्रोध के परिणामों को देख लेता है तो वह अपने जीवन की दिशा को रूपान्तरित करता हुआ क्रोध को संबोधित करते हुए कहता है ____ 'बन्धो! क्रोध! विधेहि किञ्चिदपरं स्वस्याधिवासास्पदम्।' भाई क्रोध! अब तुम अपना कोई दूसरा स्थान खोज लो। तुम मेरे साथ नहीं रह सकते। क्योंकि मन शान्तरस में ओतप्रोत हो गया है। यही है चेतना का रूपान्तरण। यही है क्रोध को अलविदा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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