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________________ अवबोध-१५ १५९ यदि कहने वाला व्यक्ति सत्य कह रहा है तो फिर मुझे क्रोध क्यों? यदि वह असत्य कह रहा है, वह मेरे पर घटित ही नहीं होता तो फिर क्रोध करने से मेरा क्या प्रयोजन? . यदि सामने वाले व्यक्ति को आकस्मिक क्रोध आ जाए तो उस समय स्वयं मौन धारण कर ले। • यदि उस समय कोई मौन का आलम्बन न ले सके तो क्षणभर के लिए वह श्वास का नियमन कर ले। • यदि श्वास को रोकना भी उसके लिए शक्य न हो तो तत्काल वह उस स्थान को छोड़कर कहीं दूसरे स्थान में चला जाए। • क्रोधशमन के लिए प्रतिपक्ष की भावना-क्षमा की अनुप्रेक्षा का आलम्बन ले। जैसा कि धम्मपद में कहा गया-'अक्कोधेन जिणे कोधम्'-क्षमा से क्रोध को जीतना चाहिए। • यह सत्य है कि आवेग भी आवेग को देखकर बढता है। प्रतिद्वन्द्वी के अभाव में स्वयं का आवेग भी क्षणभर में शान्त हो जाता है। प्रेक्षाध्यान-पद्धति में चित्त को ललाट के मध्य ज्योतिकेन्द्र पर केन्द्रित कर वहां पर चमकती हुई किसी श्वेत वस्तु का आलम्बन लेकर श्वेत रंग का साक्षात्कार करना अथवा पौर्णमासी के चन्द्रमा को ज्योतिकेन्द्र पर उगा हुआ देखकर अनुभव करना कि उसकी श्वेत रश्मियां ललाट के चारों ओर फैल रही हैं। यह प्रयोग भी क्रोधशमन का सशक्त आलंबन बन सकता है। प्रतिदिन इस अभ्यास को पांच-सात मिनिट तक किया जा सकता है। प्रस्तुत प्रकरण का प्रतिपाद्य है• क्रोधविजय से जीव क्षमा को प्राप्त होता है। वह क्रोधवेदनीय कर्म का बन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण कर देता है। जो व्यक्ति क्रोध-शमन की साधना करता है वह मान, माया और लोभ को भी विजित कर लेता है। • क्रोध के उपशमन से प्रीति, विनय और विवेक का जागरण होता व्यावहारिक जीवन में क्रोध-आवेग पर नियंत्रण करने की फलश्रुति है-शान्त-सहवास, कलहमुक्ति, पारस्परिक सौहार्द, तनाव का निराकरण, सामुदायिक चेतना का विकास, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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