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सिन्दूरप्रकर जैसे ग्रीष्मकाल प्यास को बढाता है वैसे ही क्रोध आपदाओं का विस्तार करता है।
सूरीश्वर ने जीवन-व्यवहार में क्रोधजन्य समस्याओं का भी उल्लेख किया है क्रोध संताप देने वाला, विनय का भेदन करने वाला, सौहार्द मिटाने वाला, कलह कराने वाला, पुण्य को रोकने वाला, कीर्ति को काटने वाला, दुर्बुद्धि बांटने वाला, परेशानी उत्पन्न करने वाला और दुर्गति देने वाला है। ___ व्यक्ति क्रोध के कटुक परिणामों को भोगता हुआ भी उसे छोड़ नहीं पाता। क्योंकि जब तक व्यक्ति के साथ रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति जुड़ी हुई है तब तक कषाय का चक्र घूमता ही रहेगा। वीतरागता की अवस्था में ही व्यक्ति उससे सर्वथा मुक्त हो सकता है। फिर भी स्वयं की सुख-शान्ति के लिए, पारस्परिक कलह-निवारण के लिए, एक दूसरे को सहने के लिए, सामञ्जस्य की स्थिति निर्मित करने के लिए तथा सामुदायिक चेतना में सुख से जीने के लिए उपशम की साधना करना नितान्त अपेक्षित है। क्योंकि व्यक्ति अपने आप में अकेला नहीं है, साथ में परिवार और समाज का रिश्ता भी उसके साथ जुड़ा हुआ है। उस स्थिति में 'कोहं असच्चं कुब्वेज्जा'-क्रोध को विफल करना जीवन की बड़ी सफलता है। क्रोध को विफल करने का तात्पर्य है कि क्रोध से उत्पन्न स्थिति में प्रतिक्रियात्मक कार्य से अपना बचाव करना। जैसे क्रोध आने पर गाली दे देना, किसी पर हाथ उठा देना अथवा क्रोधावेश में आत्महत्या या परहत्या कर देना आदि। एक पाश्चात्य विचारक एम. हेनरी (M. Henry) ने क्रोध की परिणति के विषय में कहा था-'जब आवेश सिंहासन पर बैठता है तब सूझ-बूझ दरवाजों से बाहर निकल जाती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने आप से पूछे
• मुझे क्रोध आता है या नहीं? • तीव्र आता है या मन्द? • क्रोध सकारण आता है या अकारण?
• यदि सकारण आता है तो कारण कौन-कौन से हैं? पुन: अपने आप से प्रश्न करे कि मुझे क्रोध का उपशमन करना है या नहीं? यदि करना है तो वह कुछेक आलम्बनों के द्वारा क्रोध-शमन का अभ्यास करे• किसी के आक्रुष्ट होने पर वह चिन्तन करे– 'यदि सत्यं कः कोपः,
यद्यनृतं किन्तु कोपेन?'
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