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अवबोध-१५
१५७ मानो वह किसी शराब के नशे में डूबा हुआ है। नीतिकार उस स्थिति का चित्रांकन करते हुए कहता है'रागं दृशोर्वपुषि कम्पमनेकरूपं,
चित्ते विवेकरहितानि च चिन्तितानि। पुंसाममार्गगमनं समदुःखजातं,
कोपं करोति सहसा मदिरामदश्च।।' क्रोध के आने पर मनुष्य की आंखें लाल हो जाती हैं। उसके शरीर में अनेक प्रकार का कम्पन होता है। वह अपने चित्त में विवेकरहित चिन्तन करता रहता है, उन्मार्ग की ओर गमन करता है और एक साथ अनेक दुःखों से आक्रान्त हो जाता है तथा वह क्रोधी व्यक्ति मदिरा से उन्मत्त बने हुए मनुष्य की भांति उन्मत्त हो जाता है।
'जॉन वेब्स्टर ने एक बार इसी सन्दर्भ में कहा था कि प्रकृति की ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मनुष्य को इतना विरूप, इतना पाशविक बना दे जितना कि अनियन्त्रित क्रोध मनुष्य को बनाता है।'
वस्तुतः क्रोध का विष सांप के विष से भी भयंकर होता है। क्रोध स्वयं एक भयंकर विषधर है। बाइबिल कहती है- क्रोध को लेकर सोना अपनी बगल में जहरीले सांप को लेकर सोना है।'
नीतिवाक्यामृत में कहा गया- 'उत्तापकत्वं हि सर्वकार्येषु सिद्धीनां प्रथमोऽन्तरायः।' क्रोध में आकर गर्म हो जाना सभी कार्यों की सिद्धि में पहला विघ्न है।
प्रस्तुत प्रकरण में रचनाकार आचार्य सोमप्रभ ने भी बड़ी ही मार्मिक शैली में अनेक उपमाओं के द्वारा क्रोध के स्वरूप को स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-क्रोध चित्त को विकृत करने में मद्य का मित्र है, संत्रास उत्पन्न करने में सर्प की प्रतिच्छाया है, शरीर को जलाने में अग्नि का सहोदर है, चैतन्य को विनष्ट करने में विषवृक्ष का चिरकालिक साथी है।
ग्रन्थकार ने क्रोध के उपद्रवों का अनेक उदाहरणों से वर्णन करते हुए कहा है-जैसे दवाग्नि वृक्ष को जला देती है वैसे ही क्रोध धर्म को भस्मसात् कर देता है। जैसे हाथी लता को रौंद देता है वैसे ही क्रोध नीति-न्याय को मथ देता है। जैसे राहू चन्द्रमा को ग्रसित करता है वैसे ही क्रोध मनुष्यों की कीर्ति को अपना भक्ष्य बना लेता है। जैसे वायु बादलों को तितर-बितर करता है वैसे ही क्रोध स्वार्थ को तोड़ देता है।
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