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________________ १५६ सिन्दूरप्रकर एक दिन-रात रहती है और नीच पुरुष जीवनपर्यन्त क्रोध को टिकाए रखता है। ___जैनाचार्यों ने कषायचतुष्क में क्रोध और मान को द्वेषात्मक अनुभूति माना है और माया एवं लोभ को रागात्मक अनुभूति। नय की दृष्टि से विचार किया जाए तो मान प्रीत्यात्मक भी हो सकता है। वह अपने उत्कर्ष की अनुभूति में रागात्मक हो जाता है। इसी प्रकार माया को रागात्मक कहा गया, किन्तु नयदृष्टि से परोपघात की स्थिति में वह अप्रीत्यात्मक भी बन जाता है। इस प्रकार मान, माया, लोभ-ये तीनों प्रीत्यात्मकअप्रीत्यात्मक-दोनों प्रकार के हो सकते हैं। ___शास्त्रीय परिभाषा में क्रोध का स्वरूप कैसा भी हो, किन्तु जीवनव्यवहार में वह अभिशाप है, दुःख का मूल है, दुर्गुणों का आकर है और धर्म का क्षय करने वाला है। नोतिकारों का अभिमत है-'एक दिन का ज्वर छह महीने की शरीर की शक्ति को नष्ट कर देता है जबकि क्षणभर का क्रोध करोड़ों पूर्यों में उपार्जित तप के फल को नष्ट कर देता है।' एक पाश्चात्य विचारक का कहना है-'केवल एक बार के क्रोध से मनुष्य का सारा दिन खराब होता है। यदि वह क्षणभर के लिए क्रोध का नियंत्रण कर ले तो वह सारे दिन के दुःख को रोक सकता है।' 'डॉ. जे. एस्टर कहते हैं कि साढे नौ घंटे के शारीरिक श्रम से जितनी शक्ति क्षीण होती है, वही पन्द्रह मिनिट के क्रोध से क्षीण हो जाती है।' 'डॉ. अरोली ने क्रोधी व्यक्तियों पर अनेक परीक्षण किए। परीक्षणों के पश्चात् उन्होंने घोषित किया कि क्रोध के कारण रक्त अशुद्ध हो जाता है। पाचनशक्ति बिगड़ जाती है। सिर का भारीपन, कमर में दर्द, पेशाब का पीलापन, नसों में खिंचाव, शरीर का पीलापन, गर्मी और खुश्की का प्रकोप आदि भी क्रोधजन्य उपद्रव हैं।' जो व्यक्ति भोजन के समय क्रोधाविष्ट होता है वह अपने भोजन में क्रोध के परमाणुओं को मिलाता है। उसका भोजन जहर हो जाता है। यदि कोई माता क्रोध के समय अपने बच्चे को स्तनपान कराती है तो वह बच्चे के लिए जानलेवा हो सकता है। इस प्रकार क्रोध अनेक दोषों का उत्पादक है। जब वह शरीर में आविष्ट होता है तब चेहरे की भ्रूभंगिमा ही बदल जाती है। मुख अति विकराल हो जाता है। उसका सारा शरीर थर-थर कांपने लगता है। होठ कटकटाने लगते हैं। उसकी मुखाकृति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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