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अवबोध-१५
१५३ भुजंग के पास गरल भी है, दांत भी है, फिर भी यदि वह तिरष्कृत होने पर किसी को नहीं डसता, क्षमा करता है, वह क्षमा सवीर्य की है, कायर की नहीं।
वह जीवन भी क्या जीवन, जिसमें सुबह से शाम तक तू-तू और मैंमैं का द्वन्द्व चलता रहे, आपस में टकराहट और कहा-सुनी होती रहे। कुछेक व्यक्तियों का जीवन ही ऐसा होता है कि सूर्योदय के साथ लड़ाईकलह-कदाग्रह का प्रारंभ होता है और वह शाम तक चलता ही रहता है। क्रोध एक आवेग भी है और मानसिक तनाव भी। आवेग में होने का अर्थ है-तनाव को उत्पन्न करना और तनाव में जीने का अर्थ है-आवेग को निमन्त्रण देना। तनाव और आवेग-दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जब व्यक्ति क्रोध पर उतारू होता है तब वह गाली भी देने लग जाता है और कभी मारपीट भी कर देता है। क्रोध के नशे में व्यक्ति की चेतना लुप्त हो जाती है, उसका विनय-विवेक भी भ्रष्ट हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में क्रोध की परिणति के विषय में कहा गया- 'अहे वयइ कोहण'-क्रोध से आत्मा का पतन होता है। गौतम कुलक में कहा गया-'चएइ बुद्धि कुवियं मणस्सं।' कुपित मनुष्य को बुद्धि छोड़ देती है। दसवैकालिकसत्र में बताया गया- 'कोहो पीई पणासेई'- क्रोध प्रीति का नाश करता है। यदि जीवन से प्रीति-प्रेम ही निकल गया तो बचा ही क्या? वही एक ऐसा सूत्र है जो प्राणिमात्र को एक सूत्र में पिरोकर रख सकता है। इसलिए संत रहिमन ने कहा
'रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिलत गांठ पड़ जाय।।' यह प्रेम का धागा इतना अधिक नाजुक है कि क्रोध आते ही वह क्षणभर में टूट जाता है। वह आपसी संबंधों में दरार ला देता है। तालाब में ढेला फेंकने पर तालाब का पानी जिस प्रकार तरंगित होता है ठीक उसी प्रकार एक व्यक्ति का क्रोध दूसरों के लिए परेशानी का कारण बनता है और स्वयं के लिए भी वह दुःखदायी बनता है, इसलिए महान् चिन्तक पायथा गोरस ने कहा- क्रोध का प्रारंभ नादानी में होता है और उसका अन्त पश्चात्ताप से होता है।' क्रोध एक ऐसी आग है जो दूसरों के लिए जलाई जाती है, किन्तु वह दूसरों को जलाने की अपेक्षा स्वयं को ही जला देती है। इस संदर्भ में नीतिकार कहते हैं- 'क्रोधश्चेदनलेन किम्?' यदि क्रोध है तो फिर अग्नि से क्या प्रयोजन? क्योंकि क्रोधी व्यक्ति बिना
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