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________________ क्रोधत्याग प्रकरण १५.अवबोध आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा-'सूरज की धूप में ताप है, पर साथ में प्रकाश है, इसलिए ताप भी क्षम्य है। प्रकाशहीन ताप अच्छा नहीं लगता।' ___उपरोक्त सत्य व्यक्ति के साथ भी अक्षरशः लागू होता है। व्यक्ति में क्रोध का उत्ताप है तो साथ में क्षमा भी है, इसलिए सामुदायिक चेतना में व्यक्ति का क्रोध भी क्षम्य हो जाता है। क्षमाविहीन क्रोध दूसरों के लिए असह्य होता है। मनुष्य समुदाय में जीता है। उसका आचरण दूसरों को प्रभावित करता है। एक ही समुदाय में भिन्न-भिन्न व्यक्ति होते हैं। उनकी भिन्न-भिन्न रुचियां, भिन्न-भिन्न प्रकृतियां, भिन्न-भिन्न विचार, भिन्न-भिन्न चिन्तन और भिन्न-भिन्न व्यवहार होते हैं। उस भिन्नता की स्थिति में एक दूसरे को सहना, अभिन्नता की स्थिति का निर्माण करना बड़ा दुष्कर काम है। सामुदायिक चेतना में शान्त-सहवास का सबसे अधिक मूल्य है। उसके बिना सामुदायिकता खंड-खंड होकर बिखर जाती है। शान्तसहवास को अशान्त करने वाला सबसे बड़ा तत्व है-क्रोध। अहंकार की चेतना उसे प्रज्वलित कर रही है। जब अहंकार पर चोट होती है तो क्रोध का नाग फुफकारने लगता है और कभी-कभी वह डस भी लेता है। जो व्यक्ति उपशम का मूल्य नहीं जानता वह जीने की कला को भी विस्मृत कर देता है। इसलिए नीतिकारों ने कहा-'शम एव परं तपः-' क्रोध का उपशमन करना ही परम तप है। जो लोग क्रोध को पी जाते हैं, लोगों को माफ कर देते हैं वे ही उपशम के मूल्य को समझ सकते हैं। इसी संदर्भ में महाकवि रामधारी 'दिनकर' ने लिखा 'क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या? जो दन्तहीन विषरहित विनीत सरल हो।। सामर्थ्यहीनता की स्थिति में क्षमा का क्या महत्त्व? वह क्षमा तो उस निर्वीर्य भुजंग के समान है, जिसके पास न गरल है और न दांत। जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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