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महापातकहेतवे ।
'अविश्वासनिधानाय, पितापुत्रविरोधाय हिरण्याय नमोस्तु ते।।'
धन ! तू अविश्वास का निधान है, महापाप का हेतु है और पितापुत्र को लड़ाने वाला है । अतः तुझे मेरा दूर से ही नमस्कार ।
परिग्रह अनेक अनर्थों का घटक है । उसका जनक है-लोभ। उसके क्या दुष्परिणाम होते हैं, उनका वर्णन करते हुए आचार्य सोमप्रभ कहते हैं- परिग्रह उपशम का शत्रु और असन्तोष का मित्र है। वह मोह का विश्रामस्थल, पापों की खान, आपदाओं का स्थान और आर्त्त - रौद्र ध्यान के लिए क्रीडावन है । वह व्याकुलता का निधान, अहंकार का सचिव, शोक का हेतु तथा कलह का क्रीडागृह है।
भगवान महावीर ने कहा है- 'लोभं संतोसओ जिणे - लोभ को सन्तोष से जीतो, क्योंकि 'लोहो सव्वविणासणो' - लोभ प्रीति, विनय और मैत्री-सबका विनाश करने वाला है।
जिस प्रकार अग्नि अत्यधिक इन्धन से और समुद्र अत्यधिक जल से तृप्त नहीं होता उसी प्रकार यह असन्तोष की अग्नि प्रचुर धन पाकर भी शान्त नहीं होती । मनुस्मृति में भी कहा गया- ' - 'सन्तोषमूलं हि सुखम् - सुख का मूल संतोष ही है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया- 'लोभविजएणं जीवे संतोसं जणयई' - लोभ को जीतने से जीव सन्तोष को उत्पन्न करता है।
प्रस्तुत प्रकरण का प्रतिपाद्य यही है
जो ममत्व की बुद्धि को छोड़ता है, ममत्व का विसर्जन करता है वह परिग्रह - आसक्ति अथवा लोभ की चेतना पर विजय पा सकता है।
परिग्रह और हिंसा परस्पर एक दूसरे से अनुस्यूत हैं, इसलिए अपरिग्रह की साधना अहिंसा - विकास की साधना है ।
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सिन्दूरप्रकर
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अर्जन के साथ विसर्जन का सूत्र परिग्रह की चेतना का परिष्कार करता है।
अपरिग्रह की साधना के लिए व्यक्तिगत संग्रह और भोग का सीमाकरण आवश्यक है।
परिग्रह का अत्यधिक संग्रह भावी जीवन के लिए भय का सूचक होता है, इसलिए असंग्रह का मनोभाव मनुष्य में अभय की चेतना का जागरण करता है।
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