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________________ अवबोध-१४ १४९ कितना कुछ करता है, कितना खपता-तपता है? जीवनभर परिग्रहपूर्ति के लिए उसका गोरखधन्धा चलता ही रहता है। जो व्यक्ति लोभाविष्ट होता है वह आने वाले कष्टों को कष्ट नहीं मानता। नीतिकार इस प्रसंग में कहते हैं 'लोभाविष्टो नरो वित्तं, वीक्षते न स चापदम्। दुग्धं पश्यति मार्जारो, न तथा लगुडाहतिम् ।।' जिस प्रकार बिल्ली दूध को देखती है, स्वयं पर पड़ने वाला लाठी का प्रहार नहीं देखती उसी प्रकार लोभी मनुष्य धन को देखता है, किन्तु उससे होने वाली आपदाओं को नहीं देखता। लोभ व्यक्ति से क्रूर से क्रूरतम और अमानवीय से अमानवीय आचरण करा सकता है। लोभ के सामने सगे-संबंधी सभी तुच्छ हो जाते हैं और परिग्रह बड़ा हो जाता है। धन की मूर्छा में व्यक्ति क्या कुछ नहीं करता? भोजप्रबन्ध में कहा है 'मातरं पितरं पुत्रं, भ्रातरं वा सुहृत्तमम् । लोभाविष्टो नरो हन्ति, स्वामिनं वा सहोदरम्।।' लोभाकुल व्यक्ति धन-प्राप्ति के लिए अपने माता-पिता, पुत्र, भाई, मित्र, स्वामी एवं सहोदर की भी हत्या कर देता है। इसलिए यहां यह सचाई प्रकट होती है- 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः'। अर्थलोभी मनुष्य के लिए न तो कोई गुरु होता है और न कोई बन्धु। काव्यप्रणेता आचार्य सोमप्रभ ने भी परिग्रह से होने वाले क्लेशों का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया है। वे लिखते हैं__ जब परिग्रहरूपी नदी का पूर बढ़ता है तब वह परिग्रहासक्त मनुष्य को कलुषित करता है, धर्मरूप वृक्ष का उन्मूलन करता है, नीति, करुणा और क्षान्तिरूपी कमलिनी को रौंदता है, लोभरूपी समुद्र को वृद्धिंगत करता है, मर्यादा के तटों को तोड़ता है और शुभ मनरूप हंस को प्रवास में भेजता है। सूरीश्वर ने अपनी चर्चा बढ़ाते हुए धन के प्रति अत्यधिक अनुरागजन्य दोषों का भी उल्लेख किया है-धन के प्रति अत्यधिक अनुरागी मनुष्य कलह, क्रोध, विपत्ति, द्वेष को आमंत्रित करता है। वह पुण्य का क्षय, मृदुता का विनाश और न्याय को ठुकराता है। एक कवि ने इसी आशय से धन को संबोधित करते हुए कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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