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सिन्दूरप्रकर
पुष्प और फल हैं। शारीरिक और मानसिक खिन्नता उसका अग्र-शिखर है। कलह उसे प्रकम्पित कर रहा है। वह नरपतियों द्वारा संपूजित और बहुजनों का हृदयवल्लभ है। वह मुक्तिमार्ग के अवरोध के लिए अर्गला है।
इस प्रकार परिग्रह जहां जीवन का आधार है वहां वह आसक्तिरूप में कर्म-बन्धन का भी हेतु बनता है। राग-द्वेष और मोह उस परिग्रह की आसक्ति को उत्पन्न कर रहे हैं। एक प्रकार से अनादिकालीन दुःखों का चक्र घूम रहा है। उसके केन्द्र में मोह अपना आधिपत्य जमाए हुए बैठा है । वह तृष्णा को उत्पन्न कर रहा है और तृष्णा मोह को पैदा कर रही है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया
'मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो । । '
जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया।
तृष्णा की भयानकता को दर्शाते हुए उत्तराध्ययन में कहा है'भवतण्हा लया वुत्ता भीमा भीमफलोदया । ' इस संसार की तृष्णा एक प्रकार की लता है। इसमें भीषण दुःखदायी फल लगते हैं। वह तृष्णा ही लोभ को वृद्धिंगत कर रही है। जब लोभ को लाभ का सिंचन मिलता है तब वह वीरण घास की भांति बढ़ता ही जाता है। कपिल ब्राह्मण की लोभ की तृष्णा दो मासा सोने से बढ़कर करोड़ों मोहरों से भी संतुष्ट नहीं हो पाई। संत कबीर ने इसी भावना से उचित ही कहा है
'तन की तृष्णा तनिक है तीन पाव के सेर । मन की तृष्णा अनन्त है गिलै मेर का मेर । । '
तन की तृष्णा बहुत ही सीमित है। वह थोड़ा पाकर भी शान्त हो जाती है। पर मन की तृष्णा इतनी अधिक विशाल है कि व्यक्ति को धन का पर्वत भी मिल जाए तब भी उसकी तृष्णा शान्त नहीं होती । व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा बूढी नहीं होती । वह सदा तरुण बनी रहती है । परिग्रह पाने के लिए व्यक्ति क्या कुछ नहीं करता? वह जीवनभर दौड़-धूप करता है, सैंकड़ों सैंकड़ों शिल्पकलाओं को सीखता है, असिमसि - कृषि वाणिज्य आदि कार्यों में प्रवृत्त होता है तथा धनुर्विद्या, शस्त्रविद्या आदि विद्याओं में पारंगत होता है। इस प्रकार न जाने वह
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