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________________ अवबोध-१४ १४७ है कि आज समाज में चारों ओर विषमता व्याप्त है, आर्थिक सन्तुलन बिगड़ रहा है। एक ओर व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे जी रहा है। उसे चाहने पर भी दो जून रोटी नसीब नहीं होती। दूसरी ओर वे व्यक्ति भी हैं जो ठाठ-बाट तथा ऐश्वर्य-विलासयुक्त जीवन जीते हैं। उनके चरणों में अपार धन लुठ रहा है। ___ साम्यवादी विचारधारा के सूत्रधार मार्क्स ने धन को केन्द्रबिन्दु मानकर समाज-विषमता को मिटाने का प्रयत्न किया। किन्तु वे अपने मिशन में सफल नहीं हो सके। समाजवाद विचारधारा ने भी समाज से गरीबी हटाने का प्रयत्न किया, किन्तु उसे भी सफलता नहीं मिली। कुछ लोगों ने अर्थ को धर्म के साथ जोड़ा तब महामंत्री कौटिल्य ने कहा था'कोई काम को, कोई मोक्ष को और कोई धर्म को प्रधान मानता है, पर मैं अर्थ को प्रधान मानता हूं।' अर्थ है तो सब कुछ है। अर्थ नहीं है तो कुछ नहीं है। आज अर्थ का इतना अधिक प्रभुत्व बढ़ा है कि धर्म-कर्म सबको उसके साथ जोड़ा जा रहा है। परिग्रह के प्रति मुर्छा, लोभ-चेतना का उदय तथा संग्रह की मनोवृत्ति-ये सब चारों ओर से परिग्रह को निमन्त्रण दे रहे हैं। उसी के कारण मनुष्य अनेक जघन्य अपराधों में प्रवृत्त होता है। भगवान महावीर से जिज्ञासा की गई-भंते! हिंसा परिग्रह के लिए है अथवा हिंसा हिंसा के लिए? भगवान ने उत्तर देते हुए कहा-हिंसा परिग्रह के लिए होती है। परिग्रह के बिना हिंसा का कोई प्रयोजन नहीं होता। इसलिए परिग्रह के साथ हिंसा का संबंध जुड़ा हुआ है, हिंसा के लिए परिग्रह नहीं है। परिग्रह और हिंसा-दोनों एक ही वस्त्र के दो अंचल हैं। परिग्रह कहां नहीं है? समाधान देते हुए कहा गया-वह देव, मनुष्य और असुर-तीनों लोकों में विद्यमान है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा है- 'नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि।' सम्पूर्णलोक में सब जीवों के परिग्रह सदृश कोई पाश और प्रतिबन्ध नहीं है। उस परिग्रह का स्वरूप भी बड़ा विचित्र है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में उसे एक वृक्ष के रूपक से समझाया गया है-परिग्रह वृक्ष का मूल है, जो अपरिमित अनन्त तृष्णा से अनुगत तथा महेच्छा का सारभूत अशुभ फल है। उसका महान् स्कन्ध है-लोभ, कलि और कषाय। सैंकड़ों चिन्ताओं से विस्तारित उसकी शाखाएं हैं। गौरव उन शाखाओं का फैलाव है। माया उसके त्वचा, पत्र, और पल्लव हैं। कामभोग उसके For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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