________________
१४६
सिन्दूरप्रकर __ व्यवहार की भाषा में धन-संपत्ति आदि को परिग्रह कहा जाता है, किन्तु निश्चय में पदार्थमात्र के प्रति लालसा या आसक्ति का होना ही परिग्रह है। भगवान महावीर के शब्दों में-ममत्व की बुद्धि अथवा मेरापन परिग्रह को बढ़ावा देते हैं। जहां मेरापन या ममत्व होता है वहां मूर्छा और आसक्ति उत्पन्न होती है। वह आसक्ति या मूर्छा ही परिग्रह का हेतु बनती है अथवा वही आसक्ति या मूर्छा परिग्रह कहलाती है। . दसवैकालिकसूत्र (६।२०) में कहा गया- 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।' मूर्छा-आसक्ति ही परिग्रह है।
ज्ञानसार में कहा गया- 'मूर्च्छया रहितानां त् जगदेवापरिग्रहः'मूर्छारहित पुरुषों के लिए तीनों लोकों का ऐश्वर्य भी अपरिग्रह है।
यह मूर्छा या आसक्ति ही व्यक्ति में संग्रह की मनोवृत्ति का निर्माण करती है। चाहे वह संग्रह व्यक्तिगत हो, समाजगत हो अथवा राष्ट्रगत हो। सभी तरह का संग्रह दोषपूर्ण होता है। शान्तसुधारस काव्य (४/३) में कहा गया
'यस्य यावान् परपरिग्रह-विविधममतावीवधः।
जलधिविनिहितपोतयुक्त्या पतति तावदऽसावधः।।' जिस व्यक्ति के पास परवस्तु के परिग्रह से होने वाली नाना प्रकार की ममताओं का जितना भार होता है वह व्यक्ति समुद्र में उतारी हुई नौका की भांति उतना ही नीचे चला जाता है।
संग्रहकर्ता मधुमक्खी के समान होता है। मधुमक्खियां भी भावी जीवन की आशा से मधु का संचय करती हैं। किन्तु जब वह करा-कराया संग्रह किसी दूसरे के हाथ में चला जाता है तब वह आशा धरी की धरी रह जाती है। संग्रहकर्ताओं पर तब क्या बीतती होगी, जब उनका धन सहसा चोरी, डकैती में चला जाता है अथवा सरकारी कर्मचारियों के द्वारा छीन लिया जाता है।
आज की अहं समस्या है-आवश्यकताओं की अपरिमितता और आसक्ति की प्रबलता। आवश्यकताएं आगे से आगे बढ़ती जा रही हैं और आसक्ति अपनी चरम सीमा को छू रही है। इस आसक्ति के कारण ही व्यक्ति आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह कर रहा है, दूसरों का शोषण कर रहा है। वह अपनी प्रत्येक आवश्यक-अनावश्यक जरूरतों को पूरा करने के लिए अशुद्ध साधनों को काम में ले रहा है। उसी का परिणाम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org