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परिग्रहत्याग प्रकरण
१४.अवबोध
जहां जीवन है वहां आवश्यकता है। जहां आवश्यकता है वहां परिग्रह है। मनुष्य को जीवन-यापन के लिए परिग्रह चाहिए। इस जगत् में ऐसा प्राणी ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा जो सभी प्रकार के परिग्रह से मुक्त हो। भगवतीसूत्र में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाए हैं-कर्म परिग्रह, शरीर परिग्रह और उपकरण परिग्रह-जमीन, जायदाद, धन, जेवर आदि। शरीर धारण करने वाला कर्म और शरीर के परिग्रह को नहीं छोड़ सकता। भंड-उपकरण आदि का परिग्रह भी जीवन-निर्वाह के लिए साधक बनता है, इसलिए उससे भी सर्वथा निर्मुक्त नहीं हुआ जा सकता। आदिम काल में शायद परिग्रह का दायरा उतना बड़ा नहीं था जितना आज है, क्योंकि उस समय आवश्यकताओं की बहुलता नहीं थी। ज्योंज्यों आवश्यकताओं का विस्तार हुआ, परिग्रह का दायरा भी बढ़ता गया। वास्तव में परिग्रह के विस्तार का अर्थ है-ममत्व का विस्तार।
परिग्रह केवल वर्तमान के लिए ही नहीं होता, वह भविष्य के लिए भी होता है। इस प्रसंग में गांधीजी ने कहा था-'परिग्रह का अर्थ हैभविष्य के लिए प्रबन्धन करना।' जो व्यक्ति सत्यान्वेषी तथा धर्म का अनुयायी होता है वह कल के लिए किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं करता। 'कल मेरा क्या होगा?' यह भविष्य की चिन्ता ही मनुष्य में संग्रह की मनोवृत्ति का निर्माण करती है। 'अब मैं क्या करूंगा ?' यह आशंका ही पदार्थ के प्रति मूढ़ता और ममत्व का विस्तार करती है। ____ मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि विकास के लिए इच्छाओं को बढ़ाओ, महत्त्वाकांक्षी बनो तभी तुम विकास के शिखर को छू सकते हो। पदार्थ के उपभोग के मुख्यतया दो ही आधार हैं-एक है आकांक्षा, दूसरी है आवश्यकता।
आवश्यकताओं की पतंग आकांक्षाओं की डोर से बन्धकर ही जीवन के आकाश में उड़ रही है। उसे जितनी ढील दी जाती है वह उतनी ही दूरी माप लेती है।
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