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________________ १४२ सिन्दूरप्रकर होता उसी प्रकार काम का काम से उपचार नहीं हो सकता। इसी संदर्भ में मनुस्मृति में कहा गया 'ना जात् कामः कामानामपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते।।'' काम की अग्नि कभी काम के उपभोग से शान्त नहीं होती, प्रत्युत वह वैसे ही भभकती है जैसे अग्नि घी डालने पर। इसलिए ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम अपने आपको अब्रह्मचर्य के निमित्तों से बचाता है। मूलतः व्यक्ति का स्वयं का संकल्प ही कामतरंग को उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी होता है। वही संकल्प मन-मस्तिष्क को प्रभावित करता है। उसके बाद वह भोग के रूप में परिणत होता है। एक साधक ने काम को संबोधित करते हुए कहा ___ 'काम! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे। न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि।।' हे काम! मैं तेरे स्वरूप को जानता हूं। तू संकल्प से उत्पन्न होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा तो तू मुझ में उत्पन्न ही नहीं होगा। आज के मानसशास्त्री मानते हैं कि व्यक्ति में काम का तनाव सबसे अधिक होता है। जब सारी चेतना काम-केन्द्र के आस-पास होती है तब मन में काम का संकल्प जागता है और व्यक्ति उसके प्रवाह में बह जाता है। एक गृहस्थ को परिवार की परम्परा को बढ़ाने के लिए काम-भोगों का सेवन करना पड़ता है, यह उसकी उपयोगिता अथवा अनिवार्यता हो सकती है, किन्तु कामान्धता के कारण व्यक्ति अपनी कुल-मर्यादाओं को भी ताक पर रख दे, अपनी परम्पराओं का सर्वथा लोप कर दे तो वह व्यक्ति पशु से भी गया-बीता होता है। - आज के युग की अहं समस्या है-अतिकामुकता और कामान्धता। कामान्ध व्यक्ति केवल काम को ही देखता है, उसके परिणाम को नहीं देखता। काम आपात रमणीय हो सकते हैं, किन्तु उनका परिणाम सरस नहीं होता। वे शारीरिक और मानसिक-दोनों शक्तियों को क्षीण करते हैं। अतिकामुक व्यक्ति में न तो किसी का भय होता है और न ही किसी की लज्जा-शर्म होती है। आज समाज में स्वच्छन्द कामप्रवृत्ति बढ रही है। उसके कारण बलात्कार, यौनविकृति आदि प्रवृत्तियां पनप रही हैं। काम को पाने के लिए व्यक्ति बड़े से बड़ा अनर्थ कर सकता है। वह हत्या, मारकाट, चोरी, डकैती आदि जघन्य अपराधों में भी चला जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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